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5. वणजारा

श्री गुरू रामदास साहिब जी द्वारा रचित बाणी ‘वणजारा’ श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के सिरी रागु में अंग 81 पर अंकित है। इस रचना में मनुष्य का आगमन बनजारे के रूप में कल्पित किया गया है। यहाँ मनुष्य उसी प्रकार धर्म कमाने आता है जैसे बनजारा अपने माल को बेचने के लिए कोशिशें करता है। अगर सच का व्यापारी बनकर, सच का व्यापार करके जीव यहाँ से जाएगा तो परमात्मा के राह की सभी भ्रांतियाँ समाप्त हो जाएँगी, जिन्दगी उल्लासमय बन जाएगी तथा वह अलौकिक गुणों का धरणी होकर सफल बनजारे के रूप में नाम धन का व्यापारी हो जाएगा।

उदाहरण के लिएः
सिरीरागु महला ४ वणजारा ੴ सति नामु गुर प्रसादि ॥
हरि हरि उतमु नामु है जिनि सिरिआ सभु कोइ जीउ ॥
हरि जीअ सभे प्रतिपालदा घटि घटि रमईआ सोइ ॥
सो हरि सदा धिआईऐ तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥
जो मोहि माइआ चितु लाइदे से छोडि चले दुखु रोइ ॥
जन नानक नामु धिआइआ हरि अंति सखाई होइ ॥१॥
मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥
हरि गुर सरणाई पाईऐ वणजारिआ मित्रा वडभागि परापति होइ ॥१॥ रहाउ ॥
संत जना विणु भाईआ हरि किनै न पाइआ नाउ ॥
विचि हउमै करम कमावदे जिउ वेसुआ पुतु निनाउ ॥
पिता जाति ता होईऐ गुरु तुठा करे पसाउ ॥
वडभागी गुरु पाइआ हरि अहिनिसि लगा भाउ ॥
जन नानकि ब्रह्मु पछाणिआ हरि कीरति करम कमाउ ॥२॥
मनि हरि हरि लगा चाउ ॥
गुरि पूरै नामु द्रिड़ाइआ हरि मिलिआ हरि प्रभ नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जोबनि सासु है तब लगु नामु धिआइ ॥
चलदिआ नालि हरि चलसी हरि अंते लए छडाइ ॥
हउ बलिहारी तिन कउ जिन हरि मनि वुठा आइ ॥
जिनी हरि हरि नामु न चेतिओ से अंति गए पछुताइ ॥
धुरि मसतकि हरि प्रभि लिखिआ जन नानक नामु धिआइ ॥३॥
मन हरि हरि प्रीति लगाइ ॥
वडभागी गुरु पाइआ गुर सबदी पारि लघाइ ॥१॥ रहाउ ॥
हरि आपे आपु उपाइदा हरि आपे देवै लेइ ॥
हरि आपे भरमि भुलाइदा हरि आपे ही मति देइ ॥
गुरमुखा मनि परगासु है से विरले केई केइ ॥
हउ बलिहारी तिन कउ जिन हरि पाइआ गुरमते ॥
जन नानकि कमलु परगासिआ मनि हरि हरि वुठड़ा हे ॥४॥
मनि हरि हरि जपनु करे ॥
हरि गुर सरणाई भजि पउ जिंदू सभ किलविख दुख परहरे ॥१॥ रहाउ ॥
घटि घटि रमईआ मनि वसै किउ पाईऐ कितु भति ॥
गुरु पूरा सतिगुरु भेटीऐ हरि आइ वसै मनि चिति ॥
मै धर नामु अधारु है हरि नामै ते गति मति ॥
मै हरि हरि नामु विसाहु है हरि नामे ही जति पति ॥
जन नानक नामु धिआइआ रंगि रतड़ा हरि रंगि रति ॥५॥
हरि धिआवहु हरि प्रभु सति ॥
गुर बचनी हरि प्रभु जाणिआ सभ हरि प्रभु ते उतपति ॥१॥ रहाउ ॥
जिन कउ पूरबि लिखिआ से आइ मिले गुर पासि ॥
सेवक भाइ वणजारिआ मित्रा गुरु हरि हरि नामु प्रगासि ॥
धनु धनु वणजु वापारीआ जिन वखरु लदिअड़ा हरि रासि ॥
गुरमुखा दरि मुख उजले से आइ मिले हरि पासि ॥
जन नानक गुरु तिन पाइआ जिना आपि तुठा गुणतासि ॥६॥
हरि धिआवहु सासि गिरासि ॥
मनि प्रीति लगी तिना गुरमुखा हरि नामु जिना रहरासि ॥१॥ रहाउ ॥१॥
अंग 81

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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