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20. मुंदावणी

पँचम पातशाह का यह शब्द ‘मुंदावणी’ शीर्षक के तहत श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 1429 पर दर्ज है। भारतीय परम्परा के अनुसार किसी बड़े राजा-महाराजा को भोजन छकाने से पूर्व उसके लिए तैयार किए भोजन को किसी खास बर्तन में डालकर मुन्द दिया जाता था। मुन्द का भाव सील करना था ताकि उसके भोजन में मिलावट न हो सके। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी रूपी थाल सत्य, सँतोष व विचार से परोस दिया है और इसे तैयार करते समय अमृत नाम का प्रयोग किया गया है। कोई भी जिज्ञासु इस अमृत रूपी थाल को बिना किसी भय के भुँच सकता है, भाव सहज रूप से इसका मँथन करके प्रभु एवँ मनुष्य के बीच की दूरियाँ हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो सकती है। प्रभु और मनुष्य की दूरी खत्म होने से गुरमति का असली प्रसँग स्थापित हो जाता है।

उदाहरण के लिएः
मुंदावणी महला ५ ॥
थाल विचि तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो ॥
अमृत नामु ठाकुर का पइओ जिस का सभसु अधारो ॥
जे को खावै जे को भुंचै तिस का होइ उधारो ॥
एह वसतु तजी नह जाई नित नित रखु उरि धारो ॥
तम संसारु चरन लगि तरीऐ सभु नानक ब्रह्म पसारो ॥१॥
सलोक महला ५ ॥ तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ॥
मै निरगुणिआरे को गुणु नाही आपे तरसु पइओई ॥
तरसु पइआ मिहरामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ ॥
नानक नामु मिलै तां जीवां तनु मनु थीवै हरिआ ॥१॥ अंग 1429

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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