19. अंजुलीआ
"अंजुली" का भाव विनय है। भारतीय परम्परा में देवी-देवताओं व पितरों को फूल लेकर
अर्पण करना और विनती करने की एक रवायत थी। इस शीर्षक से गुरू अरजन पातशाह ने बाणी
रचना की है जिसमें मनुष्य को उपदेश दिया है कि सब कुछ अकालपुरख (परमात्मा) की रज़ा
में है तथा इसीलिए सम्पूर्ण समर्पण ही केवल एक रास्ता है। इस बाणी में परमात्मा के
हुक्म तथा रज़ा को बहुत ही खूबसूरत ढँग से पेश किया है और "मेला संजोगी राम" का
प्रसँग स्थापित किया है। यह बाणी "श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी" के अंग 1019 पर
सुशोभित है।
उदाहरण के लिएः
मारू महला ५ घरु ८ अंजुलीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जिसु ग्रिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिंता ॥ जिसु ग्रिहि थोरी सु फिरै भ्रमंता ॥
दुहू बिवसथा ते जो मुकता सोई सुहेला भालीऐ ॥१॥
ग्रिह राज महि नरकु उदास करोधा ॥ बहु बिधि बेद पाठ सभि सोधा ॥
देही महि जो रहै अलिपता तिसु जन की पूरन घालीऐ ॥२॥
जागत सूता भरमि विगूता ॥ बिनु गुर मुकति न होईऐ मीता ॥
साधसंगि तुटहि हउ बंधन एको एकु निहालीऐ ॥३॥
करम करै त बंधा नह करै त निंदा ॥ मोह मगन मनु विआपिआ चिंदा ॥
गुर प्रसादि सुखु दुखु सम जाणै घटि घटि रामु हिआलीऐ ॥४॥
संसारै महि सहसा बिआपै ॥ अकथ कथा अगोचर नही जापै ॥
जिसहि बुझाए सोई बूझै ओहु बालक वागी पालीऐ ॥५॥
छोडि बहै तउ छूटै नाही ॥ जउ संचै तउ भउ मन माही ॥
इस ही महि जिस की पति राखै तिसु साधू चउरु ढालीऐ ॥६॥
जो सूरा तिस ही होइ मरणा ॥ जो भागै तिसु जोनी फिरणा ॥
जो वरताए सोई भल मानै बुझि हुकमै दुरमति जालीऐ ॥७॥
जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ करि करि वेखै अपणे जचना ॥
नानक के पूरन सुखदाते तू देहि त नामु समालीऐ ॥८॥१॥७॥ अंग 1019