18. सिद्ध गोसटि
यह बाणी श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 938 पर अंकित हैं। यह श्री गुरू नानक
पातशाह की बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है जो सिक्ख धर्म के सिद्धान्त को सम्पूर्ण रूप
में सामने लाती है। वह सिद्धान्त हैः
जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ।।
गोसटि का भाव है बातचीत, चर्चा, गोष्ठि या वार्ता और वार्ता भी
उत्तम पुरूषों की। वार्तालाप कहने व सुनने की प्रक्रिया है। श्री गुरू नानक पातशाह
जी ने इस बाणी द्वारा अंतर-धर्म सँवाद की बुनियाद रखी है। बुद्ध धर्म का एक
सम्प्रदाय जो आध्यात्मिक बुलन्दियों की शिखर पर था लेकिन सामाजिक कार्य-व्यवहार से
पूर्णतया विरक्त हो चुके था, सिद्ध गोसटि उन सिद्ध-योगियों से वार्तालाप है। इसमें
जहाँ गम्भीर दार्शनिक सँकल्पों का आलेख है, वहीं सामाजिक प्रसँग की स्थापना का भी
बहुत ही खूबसूरत ढँग से वर्णन हुआ है और यह भी बताया गया है कि समाज को उत्तम बनाने
के लिए उत्तम पुरूषों की आवश्यकता होती है। यह भारतीय भाँजवादी नीति के विरोध में
सक्रिय सामाजिक जिन्दगी जीने का एक विभिन्न प्रसँग की स्थापना है। इसे "गुरबाणी" के
इस प्रमाण से स्पष्ट किया जा सकता है कि जब सिद्धों ने सवाल किया कि गृहस्थी होकर
उदासी जीवन क्यों धारण किया है तो श्री गुरू नानक साहिब ने बहुत खूबसूरत ढँग से
जवाब दियाः
गुरमुखि खोजत भए उदासी ।।
दरसन कै ताई भेख निवासी ।।
साच वखर के हम वणजारे ।। अंग 939
उदाहरण के लिएः (10 पदे दिए जा रहे हैं)
रामकली महला १ सिध गोसटि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सिध सभा करि आसणि बैठे संत सभा जैकारो ॥
तिसु आगै रहरासि हमारी साचा अपर अपारो ॥
मसतकु काटि धरी तिसु आगै तनु मनु आगै देउ ॥
नानक संतु मिलै सचु पाईऐ सहज भाइ जसु लेउ ॥१॥
किआ भवीऐ सचि सूचा होइ ॥
साच सबद बिनु मुकति न कोइ ॥१॥ रहाउ ॥
कवन तुमे किआ नाउ तुमारा कउनु मारगु कउनु सुआओ ॥
साचु कहउ अरदासि हमारी हउ संत जना बलि जाओ ॥
कह बैसहु कह रहीऐ बाले कह आवहु कह जाहो ॥
नानकु बोलै सुणि बैरागी किआ तुमारा राहो ॥२॥
घटि घटि बैसि निरंतरि रहीऐ चालहि सतिगुर भाए ॥
सहजे आए हुकमि सिधाए नानक सदा रजाए ॥
आसणि बैसणि थिरु नाराइणु ऐसी गुरमति पाए ॥
गुरमुखि बूझै आपु पछाणै सचे सचि समाए ॥३॥
दुनीआ सागरु दुतरु कहीऐ किउ करि पाईऐ पारो ॥
चरपटु बोलै अउधू नानक देहु सचा बीचारो ॥
आपे आखै आपे समझै तिसु किआ उतरु दीजै ॥
साचु कहहु तुम पारगरामी तुझु किआ बैसणु दीजै ॥४॥
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नै साणे ॥
सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु वखाणे ॥
रहहि इकांति एको मनि वसिआ आसा माहि निरासो ॥
अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानकु ता का दासो ॥५॥
सुणि सुआमी अरदासि हमारी पूछउ साचु बीचारो ॥
रोसु न कीजै उतरु दीजै किउ पाईऐ गुर दुआरो ॥
इहु मनु चलतउ सच घरि बैसै नानक नामु अधारो ॥
आपे मेलि मिलाए करता लागै साचि पिआरो ॥६॥
हाटी बाटी रहहि निराले रूखि बिरखि उदिआने ॥
कंद मूलु अहारो खाईऐ अउधू बोलै गिआने ॥
तीरथि नाईऐ सुखु फलु पाईऐ मैलु न लागै काई ॥
गोरख पूतु लोहारीपा बोलै जोग जुगति बिधि साई ॥७॥
हाटी बाटी नीद न आवै पर घरि चितु न डुलाई ॥
बिनु नावै मनु टेक न टिकई नानक भूख न जाई ॥
हाटु पटणु घरु गुरू दिखाइआ सहजे सचु वापारो ॥
खंडित निद्रा अलप अहारं नानक ततु बीचारो ॥८॥
दरसनु भेख करहु जोगिंद्रा मुंद्रा झोली खिंथा ॥
बारह अंतरि एकु सरेवहु खटु दरसन इक पंथा ॥
इन बिधि मनु समझाईऐ पुरखा बाहुड़ि चोट न खाईऐ ॥
नानकु बोलै गुरमुखि बूझै जोग जुगति इव पाईऐ ॥९॥
अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ॥
कामु क्रोधु अहंकारु निवारै गुर कै सबदि सु समझ परी ॥
खिंथा झोली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ॥
साचा साहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ॥१०॥ अंग 938