15. पहरे
‘पहरे’ रचना का मूल आधार वक्त, पहर या समय है। पहर का भाव दिन या रात का चौथा हिस्सा
है। इस शीर्षक से गुरू नानक देव जी, गुरू रामदास जी व गुरू अरजन देव जी द्वारा रचित
बाणी श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में दर्ज है, जैसे मानव जिन्दगी को चार हिस्सों में
बाँटा जाता है उसी प्रकार इस बाणी द्वारा प्रथम हिस्सा माता का गर्भ, दूसरा जन्म के
उपरान्त बचपन, तीसरा जवानी व चौथा बुढ़ापे का वर्णन किया गया है, जैसे पहर चुपचाप
बीत जाता है, उसी प्रकार ही मानव जीवन भी गुजरता जाता है लेकिन पता तब चलता है जब
वक्त गुजर चुका होता है। इस बाणी में जीव को बनजारे के रूप में सम्बोधित किया गया
है। बनजारा वह है जो अपनी कमाई को सफल करके लौटे। जो अपनी कमाई को सफल करने में
असमर्थ होता है, उसे बनजारा नहीं गिना जाता। यह मनुष्य जीवन भी बनजारे के समान है
जहाँ मनुष्य सामाजिक कार-व्यवहार करता हुआ परमात्मा से जुड़ने के लिए आता है। यह
कर्म-भूमि असल में "नाम बीज सुहागा" है। जो रूहें इस सच को जान लेती हैं, वह
ईश्वरीय रूप हो जाती है और जो असफल रहती हैं, उनकी भटकन सदा बनी रहती है।
उदाहरण के लिएः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ पहरे घरु १ ॥
पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हुकमि पइआ गरभासि ॥
उरध तपु अंतरि करे वणजारिआ मित्रा खसम सेती अरदासि ॥
खसम सेती अरदासि वखाणै उरध धिआनि लिव लागा ॥
ना मरजादु आइआ कलि भीतरि बाहुड़ि जासी नागा ॥
जैसी कलम वुड़ी है मसतकि तैसी जीअड़े पासि ॥
कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै हुकमि पइआ गरभासि ॥१॥
दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा विसरि गइआ धिआनु ॥
हथो हथि नचाईऐ वणजारिआ मित्रा जिउ जसुदा घरि कानु ॥
हथो हथि नचाईऐ प्राणी मात कहै सुतु मेरा ॥
चेति अचेत मूड़ मन मेरे अंति नही कछु तेरा ॥
जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै मन भीतरि धरि गिआनु ॥
कहु नानक प्राणी दूजै पहरै विसरि गइआ धिआनु ॥२॥
तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धन जोबन सिउ चितु ॥
हरि का नामु न चेतही वणजारिआ मित्रा बधा छुटहि जितु ॥
हरि का नामु न चेतै प्राणी बिकलु भइआ संगि माइआ ॥
धन सिउ रता जोबनि मता अहिला जनमु गवाइआ ॥
धरम सेती वापारु न कीतो करमु न कीतो मितु ॥
कहु नानक तीजै पहरै प्राणी धन जोबन सिउ चितु ॥३॥
चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा लावी आइआ खेतु ॥
जा जमि पकड़ि चलाइआ वणजारिआ मित्रा किसै न मिलिआ भेतु ॥
भेतु चेतु हरि किसै न मिलिओ जा जमि पकड़ि चलाइआ ॥
झूठा रुदनु होआ दुआलै खिन महि भइआ पराइआ ॥
साई वसतु परापति होई जिसु सिउ लाइआ हेतु ॥
कहु नानक प्राणी चउथै पहरै लावी लुणिआ खेतु ॥४॥१॥ अंग 74