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14. घोड़ीआ

श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 575 पर वडहंस राग में श्री गुरू रामदास जी की यह रचना ‘घोड़ीआ’ दर्ज है। इस रचना की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि शादी के समय घोड़ी पर चढ़ने से जाकर जुड़ती है और दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ते समय गीत गायन किए जाते हैं। इसी रूप को प्रतीक की तरह प्रयोग करते हुए गुरू साहिब फरमाते हैं कि जैसे दूल्हे को दुल्हन के घर ले जाने का माध्यम घोड़ी है, उसी तरह ही मनुष्य देह, आत्मा को परमात्मा से मिलाने का माध्यम है, जैसे दूल्हे वाली घोड़ी का श्रँगार किया जाता है, उसी प्रकार देह का श्रँगार नाम-सिमरन व नैतिक गुणों को अंगीकार करने से होता है जो मन की चँचलता को लगाम डालकर गुरू घर की ओर मोड़कर ले जाने में समर्थ होते हैं।

उदाहरण के लिएः
वडहंसु महला ४ घोड़ीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
देह तेजणि जी रामि उपाईआ राम ॥
धंनु माणस जनमु पुंनि पाईआ राम ॥
माणस जनमु वड पुंने पाइआ देह सु कंचन चंगड़ीआ ॥
गुरमुखि रंगु चलूला पावै हरि हरि हरि नव रंगड़ीआ ॥
एह देह सु बांकी जितु हरि जापी हरि हरि नामि सुहावीआ ॥
वडभागी पाई नामु सखाई जन नानक रामि उपाईआ ॥१॥
देह पावउ जीनु बुझि चंगा राम ॥ चड़ि लंघा जी बिखमु भुइअंगा राम ॥
बिखमु भुइअंगा अनत तरंगा गुरमुखि पारि लंघाए ॥
हरि बोहिथि चड़ि वडभागी लंघै गुरु खेवटु सबदि तराए ॥
अनदिनु हरि रंगि हरि गुण गावै हरि रंगी हरि रंगा ॥
जन नानक निरबाण पदु पाइआ हरि उतमु हरि पदु चंगा ॥२॥
कड़ीआलु मुखे गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ राम ॥
तनि प्रेमु हरि चाबकु लाइआ राम ॥
तनि प्रेमु हरि हरि लाइ चाबकु मनु जिणै गुरमुखि जीतिआ ॥
अघड़ो घड़ावै सबदु पावै अपिउ हरि रसु पीतिआ ॥
सुणि स्रवण बाणी गुरि वखाणी हरि रंगु तुरी चड़ाइआ ॥
महा मारगु पंथु बिखड़ा जन नानक पारि लंघाइआ ॥३॥
घोड़ी तेजणि देह रामि उपाईआ राम ॥
जितु हरि प्रभु जापै सा धनु धंनु तुखाईआ राम ॥
जितु हरि प्रभु जापै सा धंनु साबासै धुरि पाइआ किरतु जुड़ंदा ॥
चड़ि देहड़ि घोड़ी बिखमु लघाए मिलु गुरमुखि परमानंदा ॥
हरि हरि काजु रचाइआ पूरै मिलि संत जना जंञ आई ॥
जन नानक हरि वरु पाइआ मंगलु मिलि संत जना वाधाई ॥४॥१॥५॥
अंग 575

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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