12. सुचजी
श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के सूही राग में सुशोभित यह रचना गुरू नानक साहिब की है।
सुचजी का शाब्दिक अर्थ अच्छा, शुभ, पवित्र है। इसमें जीव का स्त्री रूप में प्रकटाव
करते हुए उसके सुचजे (अच्छे) गुणों को रूपमान किया है और सामाजिक व्यवहार द्वारा यह
प्रकट किया है कि कैसे समझदार स्त्री अपने कार-व्यवहार से अपने पति को प्रसन्न करके
उसके प्यार को प्राप्त कर लेती है। इसी प्रकार जीव-स्त्री नैतिक कँदरों-कीमतों को
धारण करके अकालपुरख (परमात्मा) के रँग में रँगी जा सकती है।
उदाहरण के लिएः
सूही महला १ सुचजी ॥
जा तू ता मै सभु को तू साहिबु मेरी रासि जीउ ॥
तुधु अंतरि हउ सुखि वसा तूं अंतरि साबासि जीउ ॥
भाणै तखति वडाईआ भाणै भीख उदासि जीउ ॥
भाणै थल सिरि सरु वहै कमलु फुलै आकासि जीउ ॥
भाणै भवजलु लंघीऐ भाणै मंझि भरीआसि जीउ ॥
भाणै सो सहु रंगुला सिफति रता गुणतासि जीउ ॥
भाणै सहु भीहावला हउ आवणि जाणि मुईआसि जीउ ॥
तू सहु अगमु अतोलवा हउ कहि कहि ढहि पईआसि जीउ ॥
किआ मागउ किआ कहि सुणी मै दरसन भूख पिआसि जीउ ॥
गुर सबदी सहु पाइआ सचु नानक की अरदासि जीउ ॥२॥ अंग 762