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11. कुचजी

इस शीर्षक के नीचे श्री गुरू नानक पातशाह द्वारा रचित केवल 16 पंक्तियाँ हैं। यह रचना श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में सूही राग में अंग 762 पर अंकित हैं तथा इसका विषय परमात्मा से बेमुख हुई लोकाई है। स्त्री रूप में ‘कुचजी’ शब्द का प्रयोग करते हुए गुरू साहिब ने बताया है कि जैसे कुचजी स्त्री अपने अवगुणों के कारण अपने पति के प्यार से वँचित रह जाती है, उसी तरह की कुचजी जीव-स्त्री साँसारिक कार-व्यवहार सुख-आराम में खचित हो, हर प्रकार के विकारों में उलझी रहती है और अपने मूल से टूटकर पापों की भागीदार बनी रहती है।

उदाहरण के लिएः
रागु सूही महला १ कुचजी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मंञु कुचजी अमावणि डोसड़े हउ किउ सहु रावणि जाउ जीउ ॥
इक दू इकि चड़ंदीआ कउणु जाणै मेरा नाउ जीउ ॥
जिन्ही सखी सहु राविआ से अम्मबी छावड़ीएहि जीउ ॥
से गुण मंञु न आवनी हउ कै जी दोस धरेउ जीउ ॥
किआ गुण तेरे विथरा हउ किआ किआ घिना तेरा नाउ जीउ ॥
इकतु टोलि न अम्मबड़ा हउ सद कुरबाणै तेरै जाउ जीउ ॥
सुइना रुपा रंगुला मोती तै माणिकु जीउ ॥
से वसतू सहि दितीआ मै तिन्ह सिउ लाइआ चितु जीउ ॥
मंदर मिटी संदड़े पथर कीते रासि जीउ ॥
हउ एनी टोली भुलीअसु तिसु कंत न बैठी पासि जीउ ॥
अम्मबरि कूंजा कुरलीआ बग बहिठे आइ जीउ ॥
सा धन चली साहुरै किआ मुहु देसी अगै जाइ जीउ ॥
सुती सुती झालु थीआ भुली वाटड़ीआसु जीउ ॥
तै सह नालहु मुतीअसु दुखा कूं धरीआसु जीउ ॥
तुधु गुण मै सभि अवगणा इक नानक की अरदासि जीउ ॥
सभि राती सोहागणी मै डोहागणि काई राति जीउ ॥१॥ अंग 762

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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