10. आरती
"जन्मसाखी" के अनुसार जब श्री गुरू नानक साहिब जी अपनी उदासियों के दौरान
जगन्नाथपुरी पहुँचे तो वहाँ मन्दिरों में एक खास प्रतीक रूप में की जाती आरती को
नकारते हुए कुदरती रूप में हो रही आरती का वर्णन किया। आरती का शाब्दिक अर्थ
प्रार्थना से किया जाता है। असल में वैदिक परम्परा के अनुसार यह देवता को खुश करने
की विधि है। गुरू साहिब ने इस बाणी में बताया कि कुदरत के इस विलक्षण प्रसार में
सारी कायनात उस परमात्मा की आरती कर रही है, केवल इसको देखने वाली आँख की आवश्यकता
है।
उदाहरण के लिएः
धनासरी महला १ आरती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥
धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥
कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥
अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥
सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥
तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥
गुर साखी जोति परगटु होइ ॥
जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥
हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥
क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥
अंग 663