9. दिन-रैनि
गुरू अरजन पातशाह का एक शब्द इस महत्वपूर्ण काव्य रूप शीर्षक के नीचे दर्ज है। इस
शब्द में परम्परागत कर्मकाण्डों को छोड़कर परमात्मा के साथ जुड़ने और शुभ कर्म करने
के लिए हर समय सक्रिय रहने का उपदेश दिया गया है। असल में इस बाणी का भाव यह लगता
है कि मनुष्य दिन रात अकालपुरख (परमात्मा) का नाम जपते हुए स्वयँ अकालपुरख का रूप
हो जाए।
उदाहरण के लिएः
माझ महला ५ दिन रैणि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभि रैण ॥
आपु तिआगि सरणी पवां मुखि बोली मिठड़े वैण ॥
जनम जनम का विछुड़िआ हरि मेलहु सजणु सैण ॥
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण ॥
हरि पिर बिनु चैनु न पाईऐ खोजि डिठे सभि गैण ॥
आप कमाणै विछुड़ी दोसु न काहू देण ॥
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरु नाही करण करेण ॥
हरि तुधु विणु खाकू रूलणा कहीऐ किथै वैण ॥
नानक की बेनंतीआ हरि सुरजनु देखा नैण ॥१॥
जीअ की बिरथा सो सुणे हरि सम्रिथ पुरखु अपारु ॥
मरणि जीवणि आराधणा सभना का आधारु ॥
ससुरै पेईऐ तिसु कंत की वडा जिसु परवारु ॥
ऊचा अगम अगाधि बोध किछु अंतु न पारावारु ॥
सेवा सा तिसु भावसी संता की होइ छारु ॥
दीना नाथ दैआल देव पतित उधारणहारु ॥
आदि जुगादी रखदा सचु नामु करतारु ॥
कीमति कोइ न जाणई को नाही तोलणहारु ॥
मन तन अंतरि वसि रहे नानक नही सुमारु ॥
दिनु रैणि जि प्रभ कंउ सेवदे तिन कै सद बलिहार ॥२॥
संत अराधनि सद सदा सभना का बखसिंदु ॥
जीउ पिंडु जिनि साजिआ करि किरपा दितीनु जिंदु ॥
गुर सबदी आराधीऐ जपीऐ निर्मल मंतु ॥
कीमति कहणु न जाईऐ परमेसुरु बेअंतु ॥
जिसु मनि वसै नराइणो सो कहीऐ भगवंतु ॥
जीअ की लोचा पूरीऐ मिलै सुआमी कंतु ॥
नानकु जीवै जपि हरी दोख सभे ही हंतु ॥
दिनु रैणि जिसु न विसरै सो हरिआ होवै जंतु ॥३॥
सरब कला प्रभ पूरणो मंञु निमाणी थाउ ॥
हरि ओट गही मन अंदरे जपि जपि जीवां नाउ ॥
करि किरपा प्रभ आपणी जन धूड़ी संगि समाउ ॥
जिउ तूं राखहि तिउ रहा तेरा दिता पैना खाउ ॥
उदमु सोई कराइ प्रभ मिलि साधू गुण गाउ ॥
दूजी जाइ न सुझई किथै कूकण जाउ ॥
अगिआन बिनासन तम हरण ऊचे अगम अमाउ ॥
मनु विछुड़िआ हरि मेलीऐ नानक एहु सुआउ ॥
सरब कलिआणा तितु दिनि हरि परसी गुर के पाउ ॥४॥१॥
अंग 136