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6. वार

पँजाबी भाषा का यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण काव्य रूप है। इसके शाब्दिक अर्थ हैं जोशीलगी जिसमें किसी सूरमे-योद्धाओं की बहादुरियों का वर्णन किया गया हो। ये वीर-रस प्रधान रचनाएँ हैं और श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में इनकी सँख्या 22 है। इनमें से 21 वारों का सम्बन्ध गुरू साहिबान से है तथा एक वार गुरू घर के कीर्तनकार भाई सता व बलवंड की रामकली राग में है। गुरू नानक साहिब द्वारा 3 वारें राग माझ, आसा व मलार में दर्ज हैं। गुरू अमरदास जी की 4 वारें राग गूजरी, सूही, रामकली व मारू में दर्ज हैं। गुरू रामदास जी की 8 वारें सिरी राग, गउड़ी, विहागड़ा, वरहंस, सोरठ, बिलावल, सारंग व कानड़ा राग में दर्ज है। गुरू अर्जुन देव जी द्वारा रचित 6 वारें राग गउड़ी, गूजरी, जैतसरी, रामकली, मारू व बसंत में हैं। सते बलवंड की वार व बसंत की वार के अलावा अन्य हरेक वार की पउड़ियों के साथ गुरू साहिबान के सलोक भी दर्ज हैं।

उदाहरण के लिएः
गउड़ी की वार महला ५
राइ कमालदी मोजदी की वार की धुनि उपरि गावणी
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ५ ॥
हरि हरि नामु जो जनु जपै सो आइआ परवाणु ॥
तिसु जन कै बलिहारणै जिनि भजिआ प्रभु निरबाणु ॥
जनम मरन दुखु कटिआ हरि भेटिआ पुरखु सुजाणु ॥
संत संगि सागरु तरे जन नानक सचा ताणु ॥१॥
मः ५ ॥ भलके उठि पराहुणा मेरै घरि आवउ ॥
पाउ पखाला तिस के मनि तनि नित भावउ ॥
नामु सुणे नामु संग्रहै नामे लिव लावउ ॥
ग्रिहु धनु सभु पवित्रु होइ हरि के गुण गावउ ॥
हरि नाम वापारी नानका वडभागी पावउ ॥२॥
पउड़ी ॥ जो तुधु भावै सो भला सचु तेरा भाणा ॥
तू सभ महि एकु वरतदा सभ माहि समाणा ॥
थान थनंतरि रवि रहिआ जीअ अंदरि जाणा ॥
साधसंगि मिलि पाईऐ मनि सचे भाणा ॥
नानक प्रभ सरणागती सद सद कुरबाणा ॥१॥ अंग 318

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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