5. सलोक
भारतीय परम्परा में किसी की उत्पति में की गई बात या बोले गये शब्दों को श्लोक कहा
जाता है जैसे यश के छँत को श्लोक कहते हैं। यह बहुत ही पुराना काव्य रूप है और श्री
गुरू ग्रँथ साहिब जी में इसका बहुत खूबसूरती से ब्यान किया गया है। गुरबाणी में पदों
के पश्चात् सबसे ज्यादा रूप सलोकों के ही हैं।
उदाहरण के लिएः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीराग की वार महला ४ सलोका नालि ॥
सलोक मः ३ ॥ रागा विचि स्रीरागु है जे सचि धरे पिआरु ॥
सदा हरि सचु मनि वसै निहचल मति अपारु ॥
रतनु अमोलकु पाइआ गुर का सबदु बीचारु ॥
जिहवा सची मनु सचा सचा सरीर अकारु ॥
नानक सचै सतिगुरि सेविऐ सदा सचु वापारु ॥१॥
मः ३ ॥ होरु बिरहा सभ धातु है जब लगु साहिब प्रीति न होइ ॥
इहु मनु माइआ मोहिआ वेखणु सुनणु न होइ ॥
सह देखे बिनु प्रीति न ऊपजै अंधा किआ करेइ ॥
नानक जिनि अखी लीतीआ सोई सचा देइ ॥२॥ पउड़ी ॥
हरि इको करता इकु इको दीबाणु हरि ॥
हरि इकसै दा है अमरु इको हरि चिति धरि ॥
हरि तिसु बिनु कोई नाहि डरु भ्रमु भउ दूरि करि ॥
हरि तिसै नो सालाहि जि तुधु रखै बाहरि घरि ॥
हरि जिस नो होइ दइआलु सो हरि जपि भउ बिखमु तरि ॥१॥ अंग 83