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4. छँत

भारतीय परम्परा में इस काव्य रूप को आम करके औरतों के गीतों से जोड़ा गया था और इन गीतों का सम्बन्ध प्रेम या विरह के साथ था। गुरू पातशाह ने यही प्यार का प्रकटाव परमात्मा से करके जीव को स्त्री रूप में पेश किया जो अपने प्रेमी से बिछुड़ी हुई है और उसमें लीन होने के लिए तत्पर है। उसकी याद उसे व्याकुल करती है और व्याकुलता में वह अपने प्रीतम की सेजा को मानने के लिए उसका इन्तजार करती है।
उदाहरण के लिएः

सिरीरागु महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा गोबिंद नामु समाले ॥
मन पिआरिआ जी मित्रा हरि निबहै तेरै नाले ॥
संगि सहाई हरि नामु धिआई बिरथा कोइ न जाए ॥
मन चिंदे सेई फल पावहि चरण कमल चितु लाए ॥
जलि थलि पूरि रहिआ बनवारी घटि घटि नदरि निहाले ॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम साधसंगि भ्रमु जाले ॥१॥
मन पिआरिआ जी मित्रा हरि बिनु झूठु पसारे ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा बिखु सागरु संसारे ॥
चरण कमल करि बोहिथु करते सहसा दूखु न बिआपै ॥
गुरु पूरा भेटै वडभागी आठ पहर प्रभु जापै ॥
आदि जुगादी सेवक सुआमी भगता नामु अधारे ॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम बिनु हरि झूठ पसारे ॥२॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि लदे खेप सवली ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि दरु निहचलु मली ॥
हरि दरु सेवे अलख अभेवे निहचलु आसणु पाइआ ॥
तह जनम न मरणु न आवण जाणा संसा दूखु मिटाइआ ॥
चित्र गुप्त का कागदु फारिआ जमदूता कछू न चली ॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम हरि लदे खेप सवली ॥३॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा करि संता संगि निवासो ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि नामु जपत परगासो ॥
सिमरि सुआमी सुखह गामी इछ सगली पुंनीआ ॥
पुरबे कमाए स्रीरंग पाए हरि मिले चिरी विछुंनिआ ॥
अंतरि बाहरि सरबति रविआ मनि उपजिआ बिसुआसो ॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम करि संता संगि निवासो ॥४॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि प्रेम भगति मनु लीना ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि जल मिलि जीवे मीना ॥
हरि पी आघाने अमृत बाने स्रब सुखा मन वुठे ॥
स्रीधर पाए मंगल गाए इछ पुंनी सतिगुर तुठे ॥
लड़ि लीने लाए नउ निधि पाए नाउ सरबसु ठाकुरि दीना ॥
नानक सिख संत समझाई हरि प्रेम भगति मनु लीना ॥५॥१॥२॥
अंग 79

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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