21. सलोक वारां ते वधीक
श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के भीतरी स्वरूप से स्पष्ट है कि इसमें 22 वारें दर्ज
हैं। वारों में सलोक दर्ज करने के बाद जो सलोक बच गए, उन्हें एक अलग शीर्षक दिया गया
जिसे "सलोक वारां ते वधीक" कहा जाता है। इन सलोकों का विषय भिन्न भिन्न है और हर
सलोक विषय के पक्ष में पूर्ण तौर पर स्वतन्त्र है। गुरू साहिब ने बेशक इन काव्य रूपों
को माध्यम के रूप में अपनाया पर उन्होंने उन्हें अपना रूप व अपने अर्थ दिए, जिससे
उनका सम्बन्ध केवल काव्य रूप न होकर ‘लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार’ का
प्रसँग स्थापित कर गया।
उदाहरण के लिएः (उदाहरण के लिए 5 ही लिए गए हैं)
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
सलोक वारां ते वधीक ॥ महला १ ॥
उतंगी पैओहरी गहिरी ग्मभीरी ॥
ससुड़ि सुहीआ किव करी निवणु न जाइ थणी ॥
गचु जि लगा गिड़वड़ी सखीए धउलहरी ॥
से भी ढहदे डिठु मै मुंध न गरबु थणी ॥१॥
सुणि मुंधे हरणाखीए गूड़ा वैणु अपारु ॥
पहिला वसतु सिञाणि कै तां कीचै वापारु ॥
दोही दिचै दुरजना मित्रां कूं जैकारु ॥
जितु दोही सजण मिलनि लहु मुंधे वीचारु ॥
तनु मनु दीजै सजणा ऐसा हसणु सारु ॥
तिस सउ नेहु न कीचई जि दिसै चलणहारु ॥
नानक जिन्ही इव करि बुझिआ तिन्हा विटहु कुरबाणु ॥२॥
जे तूं तारू पाणि ताहू पुछु तिड़ंन्ह कल ॥
ताहू खरे सुजाण वंञा एन्ही कपरी ॥३॥
झड़ झखड़ ओहाड़ लहरी वहनि लखेसरी ॥
सतिगुर सिउ आलाइ बेड़े डुबणि नाहि भउ ॥४॥
नानक दुनीआ कैसी होई ॥
सालकु मितु न रहिओ कोई ॥
भाई बंधी हेतु चुकाइआ ॥
दुनीआ कारणि दीनु गवाइआ ॥५॥ अंग 141