2. असटपदी
भारतीय काव्य रूपों में अष्टपदी का अपना विलक्षण महत्व है। गुरू पातशाह ने
परम्परागत रूप को पूर्ण तौर पर नहीं अपनाया क्योंकि परम्परा में आठ पदों वाले कोई
भी रचना अष्टपदी कहलाती है पर श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में इसके कई विलक्षण रूप
हैं, इसीलिए कहा जाता है कि श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी ने परम्परा में से समझाने के
लिए किसी रूप का प्रयोग किया है तो उसे उसी प्रकार अपनाने का प्रयत्न नहीं किया
बल्कि उसे अपने अनुसार पेश किया है, जैसे श्री गुरू ग्रँथ साहिब में अष्टपदी दो
पंक्तियों से लेकर आठ, दस और यहाँ तक कि बीस-बीस पदों वाली भी हैं। श्री गुरू ग्रँथ
साहिब जी के प्रथम राग में गुरू नानक साहिब एवँ गुरू अमरदास जी की अष्टपदियाँ तीन
पंक्तियों में ही मिली हैं और पँचम पातशाह जी की सुखमनी साहिब में दस दस पंक्तियों
वाले पदे भी हैं।
उदाहरण के लिएः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ घरु १ असटपदीआ ॥
आखि आखि मनु वावणा जिउ जिउ जापै वाइ ॥
जिस नो वाइ सुणाईऐ सो केवडु कितु थाइ ॥
आखण वाले जेतड़े सभि आखि रहे लिव लाइ ॥१॥
बाबा अलहु अगम अपारु ॥
पाकी नाई पाक थाइ सचा परवदिगारु ॥१॥ रहाउ ॥
तेरा हुकमु न जापी केतड़ा लिखि न जाणै कोइ ॥
जे सउ साइर मेलीअहि तिलु न पुजावहि रोइ ॥
कीमति किनै न पाईआ सभि सुणि सुणि आखहि सोइ ॥२॥
पीर पैकामर सालक सादक सुहदे अउरु सहीद ॥
सेख मसाइक काजी मुला दरि दरवेस रसीद ॥
बरकति तिन कउ अगली पड़दे रहनि दरूद ॥३॥
पुछि न साजे पुछि न ढाहे पुछि न देवै लेइ ॥
आपणी कुदरति आपे जाणै आपे करणु करेइ ॥ स
भना वेखै नदरि करि जै भावै तै देइ ॥४॥
थावा नाव न जाणीअहि नावा केवडु नाउ ॥
जिथै वसै मेरा पातिसाहु सो केवडु है थाउ ॥
अम्मबड़ि कोइ न सकई हउ किस नो पुछणि जाउ ॥५॥
वरना वरन न भावनी जे किसै वडा करेइ ॥
वडे हथि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥
हुकमि सवारे आपणै चसा न ढिल करेइ ॥६॥
सभु को आखै बहुतु बहुतु लैणै कै वीचारि ॥
केवडु दाता आखीऐ दे कै रहिआ सुमारि ॥
नानक तोटि न आवई तेरे जुगह जुगह भंडार ॥७॥१॥ महला १ ॥ अंग 53