17. डखणा
इस शीर्षक के नीचे गुरू अरजन देव जी की बाणी दर्ज है। यह कोई छंत नहीं है पर यह गुरू
नानक देव जी की जन्मभूमि से दक्षिण की ओर की भाषा है। वहाँ के लोग प्रायः ‘द’ के
स्थान पर ‘ड’ का प्रयोग करते थे। दक्षिणी पँजाब में इसका अर्थ सूत्रवान किया जाता
है। इन अर्थों के अनुसार ऊँटों वाले अपनी यात्रा के दौरान जो गीत ऊँची सुर लगाकर
गाते, उन्हें ‘डखणे’ कहा जाने लगा।
उदाहरण के लिएः
सिरीराग के छंत महला ५
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
डखणा ॥
हठ मझाहू मा पिरी पसे किउ दीदार ॥
संत सरणाई लभणे नानक प्राण अधार ॥१॥ छंतु ॥
चरन कमल सिउ प्रीति रीति संतन मनि आवए जीउ ॥
दुतीआ भाउ बिपरीति अनीति दासा नह भावए जीउ ॥
दासा नह भावए बिनु दरसावए इक खिनु धीरजु किउ करै ॥
नाम बिहूना तनु मनु हीना जल बिनु मछुली जिउ मरै ॥
मिलु मेरे पिआरे प्रान अधारे गुण साधसंगि मिलि गावए ॥
नानक के सुआमी धारि अनुग्रहु मनि तनि अंकि समावए ॥१॥
डखणा ॥ सोहंदड़ो हभ ठाइ कोइ न दिसै डूजड़ो ॥
खुल्हड़े कपाट नानक सतिगुर भेटते ॥१॥ छंतु ॥
तेरे बचन अनूप अपार संतन आधार बाणी बीचारीऐ जीउ ॥
सिमरत सास गिरास पूरन बिसुआस किउ मनहु बिसारीऐ जीउ ॥
किउ मनहु बेसारीऐ निमख नही टारीऐ गुणवंत प्रान हमारे ॥
मन बांछत फल देत है सुआमी जीअ की बिरथा सारे ॥
अनाथ के नाथे स्रब कै साथे जपि जूऐ जनमु न हारीऐ ॥
नानक की बेनंती प्रभ पहि क्रिपा करि भवजलु तारीऐ ॥२॥
डखणा ॥ धूड़ी मजनु साध खे साई थीए क्रिपाल ॥
लधे हभे थोकड़े नानक हरि धनु माल ॥१॥ छंतु ॥
सुंदर सुआमी धाम भगतह बिस्राम आसा लगि जीवते जीउ ॥
मनि तने गलतान सिमरत प्रभ नाम हरि अमृतु पीवते जीउ ॥
अमृतु हरि पीवते सदा थिरु थीवते बिखै बनु फीका जानिआ ॥
भए किरपाल गोपाल प्रभ मेरे साधसंगति निधि मानिआ ॥
सरबसो सूख आनंद घन पिआरे हरि रतनु मन अंतरि सीवते ॥
इकु तिलु नही विसरै प्रान आधारा जपि जपि नानक जीवते ॥३॥
डखणा ॥ जो तउ कीने आपणे तिना कूं मिलिओहि ॥
आपे ही आपि मोहिओहु जसु नानक आपि सुणिओहि ॥१॥ छंतु ॥
प्रेम ठगउरी पाइ रीझाइ गोबिंद मनु मोहिआ जीउ ॥
संतन कै परसादि अगाधि कंठे लगि सोहिआ जीउ ॥
हरि कंठि लगि सोहिआ दोख सभि जोहिआ भगति लख्यण करि वसि भए ॥
मनि सरब सुख वुठे गोविद तुठे जनम मरणा सभि मिटि गए ॥
सखी मंगलो गाइआ इछ पुजाइआ बहुड़ि न माइआ होहिआ ॥
करु गहि लीने नानक प्रभ पिआरे संसारु सागरु नही पोहिआ ॥४॥
डखणा ॥ साई नामु अमोलु कीम न कोई जाणदो ॥
जिना भाग मथाहि से नानक हरि रंगु माणदो ॥१॥ छंतु ॥
कहते पवित्र सुणते सभि धंनु लिखतीं कुलु तारिआ जीउ ॥
जिन कउ साधू संगु नाम हरि रंगु तिनी ब्रह्मु बीचारिआ जीउ ॥
ब्रह्मु बीचारिआ जनमु सवारिआ पूरन किरपा प्रभि करी ॥
करु गहि लीने हरि जसो दीने जोनि ना धावै नह मरी ॥
सतिगुर दइआल किरपाल भेटत हरे कामु क्रोधु लोभु मारिआ ॥
कथनु न जाइ अकथु सुआमी सदकै जाइ नानकु वारिआ ॥५॥१॥३॥
अंग 80