15. सदु
‘सदु’ के काव्य रूप प्रबन्ध में अनेक अर्थ किए गए हैं। आम करके ‘सदु’ उसे कहा जाता
था जब किसी भी फिरके का विरक्त साधु किसी गृहस्थी के द्वार पर गजा करने हेतु लम्बी
आवाज़ लगाता था। गुरबाणी में प्रायः इसका प्रयोग ईश्वरीय बुलावे के लिए किया गया है।
‘सदु’ एक विशेष बाणी का शीर्षक भी है जो बाबा सुन्दर जी की रचना है और इस बाणी का
सम्बन्ध श्री गुरू अमरदास जी के अन्तिम समय किए उपदेशों से हैं।
उदाहरण के लिएः
रामकली सदु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जगि दाता सोइ भगति वछलु तिहु लोइ जीउ ॥
गुर सबदि समावए अवरु न जाणै कोइ जीउ ॥
अवरो न जाणहि सबदि गुर कै एकु नामु धिआवहे ॥
परसादि नानक गुरू अंगद परम पदवी पावहे ॥
आइआ हकारा चलणवारा हरि राम नामि समाइआ ॥
जगि अमरु अटलु अतोलु ठाकुरु भगति ते हरि पाइआ ॥१॥
हरि भाणा गुर भाइआ गुरु जावै हरि प्रभ पासि जीउ ॥
सतिगुरु करे हरि पहि बेनती मेरी पैज रखहु अरदासि जीउ ॥
पैज राखहु हरि जनह केरी हरि देहु नामु निरंजनो ॥
अंति चलदिआ होइ बेली जमदूत कालु निखंजनो ॥
सतिगुरू की बेनती पाई हरि प्रभि सुणी अरदासि जीउ ॥
हरि धारि किरपा सतिगुरु मिलाइआ धनु धनु कहै साबासि जीउ ॥२॥
मेरे सिख सुणहु पुत भाईहो मेरै हरि भाणा आउ मै पासि जीउ ॥
हरि भाणा गुर भाइआ मेरा हरि प्रभु करे साबासि जीउ ॥
भगतु सतिगुरु पुरखु सोई जिसु हरि प्रभ भाणा भावए ॥
आनंद अनहद वजहि वाजे हरि आपि गलि मेलावए ॥
तुसी पुत भाई परवारु मेरा मनि वेखहु करि निरजासि जीउ ॥
धुरि लिखिआ परवाणा फिरै नाही गुरु जाइ हरि प्रभ पासि जीउ ॥३॥
सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारु सदाइआ ॥
मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ॥
मितु पैझै मितु बिगसै जिसु मित की पैज भावए ॥
तुसी वीचारि देखहु पुत भाई हरि सतिगुरू पैनावए ॥
सतिगुरू परतखि होदै बहि राजु आपि टिकाइआ ॥
सभि सिख बंधप पुत भाई रामदास पैरी पाइआ ॥४॥
अंते सतिगुरु बोलिआ मै पिछै कीरतनु करिअहु निरबाणु जीउ ॥
केसो गोपाल पंडित सदिअहु हरि हरि कथा पड़हि पुराणु जीउ ॥
हरि कथा पड़ीऐ हरि नामु सुणीऐ बेबाणु हरि रंगु गुर भावए ॥
पिंडु पतलि किरिआ दीवा फुल हरि सरि पावए ॥
हरि भाइआ सतिगुरु बोलिआ हरि मिलिआ पुरखु सुजाणु जीउ ॥
रामदास सोढी तिलकु दीआ गुर सबदु सचु नीसाणु जीउ ॥५॥
सतिगुरु पुरखु जि बोलिआ गुरसिखा मंनि लई रजाइ जीउ ॥
मोहरी पुतु सनमुखु होइआ रामदासै पैरी पाइ जीउ ॥
सभ पवै पैरी सतिगुरू केरी जिथै गुरू आपु रखिआ ॥
कोई करि बखीली निवै नाही फिरि सतिगुरू आणि निवाइआ ॥
हरि गुरहि भाणा दीई वडिआई धुरि लिखिआ लेखु रजाइ जीउ ॥
कहै सुंदरु सुणहु संतहु सभु जगतु पैरी पाइ जीउ ॥६॥१॥ अंग 923