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14. बावन अखरी

52 अक्षरों की व्याख्या और इन अक्षरों को आधार बनाकर दिए गए उपदेशों वाली रचना को ‘बावन अखरी’ का नाम दिया गया है। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में इस शीर्षक से दो रचनाएँ– गुरू अरजन पातशाह या भक्त कबीर जी की मिलती हैं जो कि गउड़ी राग में दर्ज हैं। गुरू अरजन देव जी की इस रचना की 55 पउड़ियाँ हैं तथा पउड़ियों के प्रारम्भिक अक्षरों का उच्चारण गुरमुखी वर्णमाला का है। भक्त कबीर जी की रचना के 45 छँत हैं। इस रचना में बेशक 52 अक्षरों का प्रयोग नहीं किया गया पर काव्य रूप करके इसे ‘बावन अखरी’ कहा गया है।

उदाहरण के लिएः
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की  
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
बावन अछर लोक त्रै सभु कछु इन ही माहि ॥
ए अखर खिरि जाहिगे ओइ अखर इन महि नाहि ॥१॥
जहा बोल तह अछर आवा ॥ जह अबोल तह मनु न रहावा ॥
बोल अबोल मधि है सोई ॥ जस ओहु है तस लखै न कोई ॥२॥
अलह लहउ तउ किआ कहउ कहउ त को उपकार ॥
बटक बीज महि रवि रहिओ जा को तीनि लोक बिसथार ॥३॥
अलह लहंता भेद छै कछु कछु पाइओ भेद ॥
उलटि भेद मनु बेधिओ पाइओ अभंग अछेद ॥४॥
तुरक तरीकति जानीऐ हिंदू बेद पुरान ॥
मन समझावन कारने कछूअक पड़ीऐ गिआन ॥५॥
ओअंकार आदि मै जाना ॥ लिखि अरु मेटै ताहि न माना ॥
ओअंकार लखै जउ कोई ॥ सोई लखि मेटणा न होई ॥६॥
कका किरणि कमल महि पावा ॥ ससि बिगास स्मपट नही आवा ॥
अरु जे तहा कुसम रसु पावा ॥ अकह कहा कहि का समझावा ॥७॥
खखा इहै खोड़ि मन आवा ॥ खोड़े छाडि न दह दिस धावा ॥
खसमहि जाणि खिमा करि रहै ॥ तउ होइ निखिअउ अखै पदु लहै ॥८॥
गगा गुर के बचन पछाना ॥ दूजी बात न धरई काना ॥
रहै बिहंगम कतहि न जाई ॥ अगह गहै गहि गगन रहाई ॥९॥
घघा घटि घटि निमसै सोई ॥ घट फूटे घटि कबहि न होई ॥
ता घट माहि घाट जउ पावा ॥ सो घटु छाडि अवघट कत धावा ॥१०॥
ङंङा निग्रहि सनेहु करि निरवारो संदेह ॥
नाही देखि न भाजीऐ परम सिआनप एह ॥११॥
चचा रचित चित्र है भारी ॥ तजि चित्रै चेतहु चितकारी ॥
चित्र बचित्र इहै अवझेरा ॥ तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥१२॥
छछा इहै छत्रपति पासा ॥ छकि कि न रहहु छाडि कि न आसा ॥
रे मन मै तउ छिन छिन समझावा ॥ ताहि छाडि कत आपु बधावा ॥१३॥
जजा जउ तन जीवत जरावै ॥ जोबन जारि जुगति सो पावै ॥
अस जरि पर जरि जरि जब रहै ॥ तब जाइ जोति उजारउ लहै ॥१४॥
झझा उरझि सुरझि नही जाना ॥ रहिओ झझकि नाही परवाना ॥
कत झखि झखि अउरन समझावा ॥ झगरु कीए झगरउ ही पावा ॥१५॥
ञंञा निकटि जु घट रहिओ दूरि कहा तजि जाइ ॥
जा कारणि जगु ढूढिअउ नेरउ पाइअउ ताहि ॥१६॥
टटा बिकट घाट घट माही ॥ खोलि कपाट महलि कि न जाही ॥
देखि अटल टलि कतहि न जावा ॥ रहै लपटि घट परचउ पावा ॥१७॥
ठठा इहै दूरि ठग नीरा ॥ नीठि नीठि मनु कीआ धीरा ॥
जिनि ठगि ठगिआ सगल जगु खावा ॥ सो ठगु ठगिआ ठउर मनु आवा ॥१८॥
डडा डर उपजे डरु जाई ॥ ता डर महि डरु रहिआ समाई ॥
जउ डर डरै त फिरि डरु लागै ॥ निडर हूआ डरु उर होइ भागै ॥१९॥
ढढा ढिग ढूढहि कत आना ॥ ढूढत ही ढहि गए पराना ॥
चड़ि सुमेरि ढूढि जब आवा ॥ जिह गड़ु गड़िओ सु गड़ महि पावा ॥२०॥
णाणा रणि रूतउ नर नेही करै ॥ ना निवै ना फुनि संचरै ॥
धंनि जनमु ताही को गणै ॥ मारै एकहि तजि जाइ घणै ॥२१॥
तता अतर तरिओ नह जाई ॥ तन त्रिभवण महि रहिओ समाई ॥
जउ त्रिभवण तन माहि समावा ॥ तउ ततहि तत मिलिआ सचु पावा ॥२२॥
थथा अथाह थाह नही पावा ॥ ओहु अथाह इहु थिरु न रहावा ॥
थोड़ै थलि थानक आर्मभै ॥ बिनु ही थाभह मंदिरु थ्मभै ॥२३॥
ददा देखि जु बिनसनहारा ॥ जस अदेखि तस राखि बिचारा ॥
दसवै दुआरि कुंची जब दीजै ॥ तउ दइआल को दरसनु कीजै ॥२४॥
धधा अरधहि उरध निबेरा ॥ अरधहि उरधह मंझि बसेरा ॥
अरधह छाडि उरध जउ आवा ॥ तउ अरधहि उरध मिलिआ सुख पावा ॥२५॥
नंना निसि दिनु निरखत जाई ॥ निरखत नैन रहे रतवाई ॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा ॥ तब ले निरखहि निरख मिलावा ॥२६॥
पपा अपर पारु नही पावा ॥ परम जोति सिउ परचउ लावा ॥
पांचउ इंद्री निग्रह करई ॥ पापु पुंनु दोऊ निरवरई ॥२७॥
फफा बिनु फूलह फलु होई ॥ ता फल फंक लखै जउ कोई ॥
दूणि न परई फंक बिचारै ॥ ता फल फंक सभै तन फारै ॥२८॥
बबा बिंदहि बिंद मिलावा ॥ बिंदहि बिंदि न बिछुरन पावा ॥
बंदउ होइ बंदगी गहै ॥ बंदक होइ बंध सुधि लहै ॥२९॥
भभा भेदहि भेद मिलावा ॥ अब भउ भानि भरोसउ आवा ॥
जो बाहरि सो भीतरि जानिआ ॥ भइआ भेदु भूपति पहिचानिआ ॥३०॥
ममा मूल गहिआ मनु मानै ॥ मरमी होइ सु मन कउ जानै ॥
मत कोई मन मिलता बिलमावै ॥ मगन भइआ ते सो सचु पावै ॥३१॥
ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ ॥
मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ ॥३२॥
इहु मनु सकती इहु मनु सीउ ॥ इहु मनु पंच तत को जीउ ॥
इहु मनु ले जउ उनमनि रहै ॥ तउ तीनि लोक की बातै कहै ॥३३॥
यया जउ जानहि तउ दुरमति हनि करि बसि काइआ गाउ ॥
रणि रूतउ भाजै नही सूरउ थारउ नाउ ॥३४॥
रारा रसु निरस करि जानिआ ॥ होइ निरस सु रसु पहिचानिआ ॥
इह रस छाडे उह रसु आवा ॥ उह रसु पीआ इह रसु नही भावा ॥३५॥
लला ऐसे लिव मनु लावै ॥ अनत न जाइ परम सचु पावै ॥
अरु जउ तहा प्रेम लिव लावै ॥ तउ अलह लहै लहि चरन समावै ॥३६॥
ववा बार बार बिसन सम्हारि ॥ बिसन सम्हारि न आवै हारि ॥
बलि बलि जे बिसनतना जसु गावै ॥ विसन मिले सभ ही सचु पावै ॥३७॥
वावा वाही जानीऐ वा जाने इहु होइ ॥
इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ ॥३८॥
ससा सो नीका करि सोधहु ॥ घट परचा की बात निरोधहु ॥
घट परचै जउ उपजै भाउ ॥ पूरि रहिआ तह त्रिभवण राउ ॥३९॥
खखा खोजि परै जउ कोई ॥ जो खोजै सो बहुरि न होई ॥
खोज बूझि जउ करै बीचारा ॥ तउ भवजल तरत न लावै बारा ॥४०॥
ससा सो सह सेज सवारै ॥ सोई सही संदेह निवारै ॥
अलप सुख छाडि परम सुख पावा ॥ तब इह त्रीअ ओहु कंतु कहावा ॥४१॥
हाहा होत होइ नही जाना ॥ जब ही होइ तबहि मनु माना ॥
है तउ सही लखै जउ कोई ॥ तब ओही उहु एहु न होई ॥४२॥
लिंउ लिंउ करत फिरै सभु लोगु ॥ ता कारणि बिआपै बहु सोगु ॥
लखिमी बर सिउ जउ लिउ लावै ॥ सोगु मिटै सभ ही सुख पावै ॥४३॥
खखा खिरत खपत गए केते ॥ खिरत खपत अजहूं नह चेते ॥
अब जगु जानि जउ मना रहै ॥ जह का बिछुरा तह थिरु लहै ॥४४॥
बावन अखर जोरे आनि ॥ सकिआ न अखरु एकु पछानि ॥
सत का सबदु कबीरा कहै ॥ पंडित होइ सु अनभै रहै ॥
पंडित लोगह कउ बिउहार ॥ गिआनवंत कउ ततु बीचार ॥
जा कै जीअ जैसी बुधि होई ॥ कहि कबीर जानैगा सोई ॥४५॥ अंग 340

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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