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13. पटी 

पटी का शाब्दिक अर्थ फट्टी या तख्ती है जिसके ऊपर बच्चे वर्णमाला लिख कर सीखते हैं। इसी को ही काव्य रूप प्रदान करते हुए पँजाब में पट्टी कहा जाने लगा। फारसी व सँस्कृत दोनों में ही इसके रूप मिलते हैं जिन्हें ‘सीहरफी’ व ‘बावन अखरी’ कहा जाता है। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में इस नाम की दो रचनाएँ आसा राग में दर्ज हैं जिनका सम्बन्ध गुरू नानक पातशाह व गुरू अमरदास जी से है। असल में ‘पटी’ में हर पँक्ति लिपि के अक्षर से शुरू होती है। इस रचना का विषय दार्शनिक सिद्धाँतों से जुड़ा हुआ है। जीव के परमात्मा को मिलने की राह और उस राह पर चलने से प्राप्तियाँ और मार्गदर्शक के रूप में गुरू की आवश्यकता की महिमा का इसमें वर्णन है। सिक्ख परम्परा के अनुसार गुरू नानक साहिब ने विद्यालय में प्रवेश करने के उपरान्त पांधे, अध्यापक को पढ़ाने के लिए ‘पटी’ की रचना की।

उदाहरण के लिएः
रागु आसा महला १ पटी लिखी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ससै सोइ स्रिसटि जिनि साजी सभना साहिबु एकु भइआ ॥
सेवत रहे चितु जिन्ह का लागा आइआ तिन्ह का सफलु भइआ ॥१॥
मन काहे भूले मूड़ मना ॥
जब लेखा देवहि बीरा तउ पड़िआ ॥१॥ रहाउ ॥
ईवड़ी आदि पुरखु है दाता आपे सचा सोई ॥
एना अखरा महि जो गुरमुखि बूझै तिसु सिरि लेखु न होई ॥२॥
ऊड़ै उपमा ता की कीजै जा का अंतु न पाइआ ॥
सेवा करहि सेई फलु पावहि जिन्ही सचु कमाइआ ॥३॥
ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पड़िआ पंडितु सोई ॥
सरब जीआ महि एको जाणै ता हउमै कहै न कोई ॥४॥
ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ॥
जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ॥५॥
खखै खुंदकारु साह आलमु करि खरीदि जिनि खरचु दीआ ॥
बंधनि जा कै सभु जगु बाधिआ अवरी का नही हुकमु पइआ ॥६॥
गगै गोइ गाइ जिनि छोडी गली गोबिदु गरबि भइआ ॥
घड़ि भांडे जिनि आवी साजी चाड़ण वाहै तई कीआ ॥७॥
घघै घाल सेवकु जे घालै सबदि गुरू कै लागि रहै ॥
बुरा भला जे सम करि जाणै इन बिधि साहिबु रमतु रहै ॥८॥
चचै चारि वेद जिनि साजे चारे खाणी चारि जुगा ॥
जुगु जुगु जोगी खाणी भोगी पड़िआ पंडितु आपि थीआ ॥९॥
छछै छाइआ वरती सभ अंतरि तेरा कीआ भरमु होआ ॥
भरमु उपाइ भुलाईअनु आपे तेरा करमु होआ तिन्ह गुरू मिलिआ ॥१०॥
जजै जानु मंगत जनु जाचै लख चउरासीह भीख भविआ ॥
एको लेवै एको देवै अवरु न दूजा मै सुणिआ ॥११॥
झझै झूरि मरहु किआ प्राणी जो किछु देणा सु दे रहिआ ॥
दे दे वेखै हुकमु चलाए जिउ जीआ का रिजकु पइआ ॥१२॥
ञंञै नदरि करे जा देखा दूजा कोई नाही ॥
एको रवि रहिआ सभ थाई एकु वसिआ मन माही ॥१३॥
टटै टंचु करहु किआ प्राणी घड़ी कि मुहति कि उठि चलणा ॥
जूऐ जनमु न हारहु अपणा भाजि पड़हु तुम हरि सरणा ॥१४॥
ठठै ठाढि वरती तिन अंतरि हरि चरणी जिन्ह का चितु लागा ॥
चितु लागा सेई जन निसतरे तउ परसादी सुखु पाइआ ॥१५॥
डडै ड्मफु करहु किआ प्राणी जो किछु होआ सु सभु चलणा ॥
तिसै सरेवहु ता सुखु पावहु सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥१६॥
ढढै ढाहि उसारै आपे जिउ तिसु भावै तिवै करे ॥
करि करि वेखै हुकमु चलाए तिसु निसतारे जा कउ नदरि करे ॥१७॥
णाणै रवतु रहै घट अंतरि हरि गुण गावै सोई ॥
आपे आपि मिलाए करता पुनरपि जनमु न होई ॥१८॥
ततै तारू भवजलु होआ ता का अंतु न पाइआ ॥
ना तर ना तुलहा हम बूडसि तारि लेहि तारण राइआ ॥१९॥
थथै थानि थानंतरि सोई जा का कीआ सभु होआ ॥
किआ भरमु किआ माइआ कहीऐ जो तिसु भावै सोई भला ॥२०॥
ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करमा आपणिआ ॥
जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥
धधै धारि कला जिनि छोडी हरि चीजी जिनि रंग कीआ ॥
तिस दा दीआ सभनी लीआ करमी करमी हुकमु पइआ ॥२२॥
नंनै नाह भोग नित भोगै ना डीठा ना सम्हलिआ ॥
गली हउ सोहागणि भैणे कंतु न कबहूं मै मिलिआ ॥२३॥
पपै पातिसाहु परमेसरु वेखण कउ परपंचु कीआ ॥
देखै बूझै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥२४॥
फफै फाही सभु जगु फासा जम कै संगलि बंधि लइआ ॥
गुर परसादी से नर उबरे जि हरि सरणागति भजि पइआ ॥२५॥
बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा ॥
जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥
भभै भालहि से फलु पावहि गुर परसादी जिन्ह कउ भउ पइआ ॥
मनमुख फिरहि न चेतहि मूड़े लख चउरासीह फेरु पइआ ॥२७॥
ममै मोहु मरणु मधुसूदनु मरणु भइआ तब चेतविआ ॥
काइआ भीतरि अवरो पड़िआ ममा अखरु वीसरिआ ॥२८॥
ययै जनमु न होवी कद ही जे करि सचु पछाणै ॥
गुरमुखि आखै गुरमुखि बूझै गुरमुखि एको जाणै ॥२९॥
रारै रवि रहिआ सभ अंतरि जेते कीए जंता ॥
जंत उपाइ धंधै सभ लाए करमु होआ तिन नामु लइआ ॥३०॥
ललै लाइ धंधै जिनि छोडी मीठा माइआ मोहु कीआ ॥
खाणा पीणा सम करि सहणा भाणै ता कै हुकमु पइआ ॥३१॥
ववै वासुदेउ परमेसरु वेखण कउ जिनि वेसु कीआ ॥
वेखै चाखै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥३२॥
ड़ाड़ै राड़ि करहि किआ प्राणी तिसहि धिआवहु जि अमरु होआ ॥
तिसहि धिआवहु सचि समावहु ओसु विटहु कुरबाणु कीआ ॥३३॥
हाहै होरु न कोई दाता जीअ उपाइ जिनि रिजकु दीआ ॥
हरि नामु धिआवहु हरि नामि समावहु अनदिनु लाहा हरि नामु लीआ ॥३४॥
आइड़ै आपि करे जिनि छोडी जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥
करे कराए सभ किछु जाणै नानक साइर इव कहिआ ॥३५॥१॥ अंग 432

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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