12. बारह माहा
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण काव्य रूप है। इसका सम्बन्ध विरहा से है। श्री गुरू ग्रँथ
साहिब जी में इस शीर्षक के नीचे दो रचनाएँ दर्ज हैं– तुखारी राग में गुरू नानक देव
जी की तथा माझ राग में गुरू अरजन पातशाह की। यहाँ बेशक विछोड़ा विरह है पर इसका
स्वरूप दुनियावी नहीं बल्कि अध्यात्मिक है। इन रचनाओं में कुदरत में बदलते पसारे को
प्रतीक के रूप में लेते हुए मनुष्य के भीतर उठती विहवलता व भीतरी बदलाव का खूबसूरत
ढँग से वर्णन किया गया है।
उदाहरण के लिएः
बारह माहा मांझ महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
किरति करम के वीछुड़े करि किरपा मेलहु राम ॥
चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम ॥
धेनु दुधै ते बाहरी कितै न आवै काम ॥
जल बिनु साख कुमलावती उपजहि नाही दाम ॥
हरि नाह न मिलीऐ साजनै कत पाईऐ बिसराम ॥
जितु घरि हरि कंतु न प्रगटई भठि नगर से ग्राम ॥
स्रब सीगार त्मबोल रस सणु देही सभ खाम ॥
प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ मीत सजण सभि जाम ॥
नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु ॥
हरि मेलहु सुआमी संगि प्रभ जिस का निहचल धाम ॥१॥
चेति गोविंदु अराधीऐ होवै अनंदु घणा ॥
संत जना मिलि पाईऐ रसना नामु भणा ॥
जिनि पाइआ प्रभु आपणा आए तिसहि गणा ॥
इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा बिरथा जनमु जणा ॥
जलि थलि महीअलि पूरिआ रविआ विचि वणा ॥
सो प्रभु चिति न आवई कितड़ा दुखु गणा ॥
जिनी राविआ सो प्रभू तिंना भागु मणा ॥
हरि दरसन कंउ मनु लोचदा नानक पिआस मना ॥
चेति मिलाए सो प्रभू तिस कै पाइ लगा ॥२॥
वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ जिना प्रेम बिछोहु ॥
हरि साजनु पुरखु विसारि कै लगी माइआ धोहु ॥
पुत्र कलत्र न संगि धना हरि अविनासी ओहु ॥
पलचि पलचि सगली मुई झूठै धंधै मोहु ॥
इकसु हरि के नाम बिनु अगै लईअहि खोहि ॥
दयु विसारि विगुचणा प्रभ बिनु अवरु न कोइ ॥
प्रीतम चरणी जो लगे तिन की निर्मल सोइ ॥
नानक की प्रभ बेनती प्रभ मिलहु परापति होइ ॥
वैसाखु सुहावा तां लगै जा संतु भेटै हरि सोइ ॥ ३॥
हरि जेठि जुड़ंदा लोड़ीऐ जिसु अगै सभि निवंनि ॥
हरि सजण दावणि लगिआ किसै न देई बंनि ॥
माणक मोती नामु प्रभ उन लगै नाही संनि ॥
रंग सभे नाराइणै जेते मनि भावंनि ॥
जो हरि लोड़े सो करे सोई जीअ करंनि ॥
जो प्रभि कीते आपणे सेई कहीअहि धंनि ॥
आपण लीआ जे मिलै विछुड़ि किउ रोवंनि ॥
साधू संगु परापते नानक रंग माणंनि ॥
हरि जेठु रंगीला तिसु धणी जिस कै भागु मथंनि ॥४॥
आसाड़ु तपंदा तिसु लगै हरि नाहु न जिंना पासि ॥
जगजीवन पुरखु तिआगि कै माणस संदी आस ॥
दुयै भाइ विगुचीऐ गलि पईसु जम की फास ॥
जेहा बीजै सो लुणै मथै जो लिखिआसु ॥
रैणि विहाणी पछुताणी उठि चली गई निरास ॥
जिन कौ साधू भेटीऐ सो दरगह होइ खलासु ॥
करि किरपा प्रभ आपणी तेरे दरसन होइ पिआस ॥
प्रभ तुधु बिनु दूजा को नही नानक की अरदासि ॥
आसाड़ु सुहंदा तिसु लगै जिसु मनि हरि चरण निवास ॥५॥
सावणि सरसी कामणी चरन कमल सिउ पिआरु ॥
मनु तनु रता सच रंगि इको नामु अधारु ॥
बिखिआ रंग कूड़ाविआ दिसनि सभे छारु ॥
हरि अमृत बूंद सुहावणी मिलि साधू पीवणहारु ॥
वणु तिणु प्रभ संगि मउलिआ सम्रथ पुरख अपारु ॥
हरि मिलणै नो मनु लोचदा करमि मिलावणहारु ॥
जिनी सखीए प्रभु पाइआ हंउ तिन कै सद बलिहार ॥
नानक हरि जी मइआ करि सबदि सवारणहारु ॥
सावणु तिना सुहागणी जिन राम नामु उरि हारु ॥६॥
भादुइ भरमि भुलाणीआ दूजै लगा हेतु ॥
लख सीगार बणाइआ कारजि नाही केतु ॥
जितु दिनि देह बिनससी तितु वेलै कहसनि प्रेतु ॥
पकड़ि चलाइनि दूत जम किसै न देनी भेतु ॥
छडि खड़ोते खिनै माहि जिन सिउ लगा हेतु ॥
हथ मरोड़ै तनु कपे सिआहहु होआ सेतु ॥
जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु ॥
नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभ देतु ॥
से भादुइ नरकि न पाईअहि गुरु रखण वाला हेतु ॥७॥
असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥
मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥
संत सहाई प्रेम के हउ तिन कै लागा पाइ ॥
विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥
जिंन्ही चाखिआ प्रेम रसु से त्रिपति रहे आघाइ ॥
आपु तिआगि बिनती करहि लेहु प्रभू लड़ि लाइ ॥
जो हरि कंति मिलाईआ सि विछुड़ि कतहि न जाइ ॥
प्रभ विणु दूजा को नही नानक हरि सरणाइ ॥
असू सुखी वसंदीआ जिना मइआ हरि राइ ॥८॥
कतिकि करम कमावणे दोसु न काहू जोगु ॥
परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥
वेमुख होए राम ते लगनि जनम विजोग ॥
खिन महि कउड़े होइ गए जितड़े माइआ भोग ॥
विचु न कोई करि सकै किस थै रोवहि रोज ॥
कीता किछू न होवई लिखिआ धुरि संजोग ॥
वडभागी मेरा प्रभु मिलै तां उतरहि सभि बिओग ॥
नानक कउ प्रभ राखि लेहि मेरे साहिब बंदी मोच ॥
कतिक होवै साधसंगु बिनसहि सभे सोच ॥९॥
मंघिरि माहि सोहंदीआ हरि पिर संगि बैठड़ीआह ॥
तिन की सोभा किआ गणी जि साहिबि मेलड़ीआह ॥
तनु मनु मउलिआ राम सिउ संगि साध सहेलड़ीआह ॥
साध जना ते बाहरी से रहनि इकेलड़ीआह ॥
तिन दुखु न कबहू उतरै से जम कै वसि पड़ीआह ॥
जिनी राविआ प्रभु आपणा से दिसनि नित खड़ीआह ॥
रतन जवेहर लाल हरि कंठि तिना जड़ीआह ॥
नानक बांछै धूड़ि तिन प्रभ सरणी दरि पड़ीआह ॥
मंघिरि प्रभु आराधणा बहुड़ि न जनमड़ीआह ॥१०॥
पोखि तुखारु न विआपई कंठि मिलिआ हरि नाहु ॥
मनु बेधिआ चरनारबिंद दरसनि लगड़ा साहु ॥
ओट गोविंद गोपाल राइ सेवा सुआमी लाहु ॥
बिखिआ पोहि न सकई मिलि साधू गुण गाहु ॥
जह ते उपजी तह मिली सची प्रीति समाहु ॥
करु गहि लीनी पारब्रहमि बहुड़ि न विछुड़ीआहु ॥
बारि जाउ लख बेरीआ हरि सजणु अगम अगाहु ॥
सरम पई नाराइणै नानक दरि पईआहु ॥
पोखु सुहंदा सरब सुख जिसु बखसे वेपरवाहु ॥११॥
माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी करि इसनानु ॥
हरि का नामु धिआइ सुणि सभना नो करि दानु ॥
जनम करम मलु उतरै मन ते जाइ गुमानु ॥
कामि करोधि न मोहीऐ बिनसै लोभु सुआनु ॥
सचै मारगि चलदिआ उसतति करे जहानु ॥
अठसठि तीर्थ सगल पुंन जीअ दइआ परवानु ॥
जिस नो देवै दइआ करि सोई पुरखु सुजानु ॥
जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु ॥
माघि सुचे से कांढीअहि जिन पूरा गुरु मिहरवानु ॥१२॥
फलगुणि अनंद उपारजना हरि सजण प्रगटे आइ ॥
संत सहाई राम के करि किरपा दीआ मिलाइ ॥
सेज सुहावी सरब सुख हुणि दुखा नाही जाइ ॥
इछ पुनी वडभागणी वरु पाइआ हरि राइ ॥
मिलि सहीआ मंगलु गावही गीत गोविंद अलाइ ॥
हरि जेहा अवरु न दिसई कोई दूजा लवै न लाइ ॥
हलतु पलतु सवारिओनु निहचल दितीअनु जाइ ॥
संसार सागर ते रखिअनु बहुड़ि न जनमै धाइ ॥
जिहवा एक अनेक गुण तरे नानक चरणी पाइ ॥
फलगुणि नित सलाहीऐ जिस नो तिलु न तमाइ ॥१३॥
जिनि जिनि नामु धिआइआ तिन के काज सरे ॥
हरि गुरु पूरा आराधिआ दरगह सचि खरे ॥
सरब सुखा निधि चरण हरि भउजलु बिखमु तरे ॥
प्रेम भगति तिन पाईआ बिखिआ नाहि जरे ॥
कूड़ गए दुबिधा नसी पूरन सचि भरे ॥
पारब्रह्मु प्रभु सेवदे मन अंदरि एकु धरे ॥
माह दिवस मूरत भले जिस कउ नदरि करे ॥
नानकु मंगै दरस दानु किरपा करहु हरे ॥१४॥१॥ अंग 132