9. श्री गुरू अंगद देव साहिब जी
1504 ईस्वी को मत्ते की सराय नाम के गाँव में पिता फेरूमल व माता दया कौर जी के घर
एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम "लहिणा" रखा गया। पिता जी का व्यवसाय दुकानदारी का
था और इलाके के खुशहाल परिवार के रूप में जाने जाते थे। भाई लहिणा जी का बचपन सतलुज
व व्यास नदियों के सँगम के ऊपर कुदरत की गोद में खेलते हुए व्यतीत हुआ। 1519 ईस्वी
को आप जी का विवाह बीबी खीवी से सम्पन्न हुआ। कुछ समय पश्चात् आप जी के पिता चल बसे
और आपने अपनी दुकानदारी का पेशा अपने ससुराल गाँव में आकर करना शुरू कर दिया। आप जी
के घर दो साहिबजादे (बाबा दासू व दातू) तथा दो साहिबजादियाँ (बीबी अमरी व बीबी अनोखी)
पैदा हुए। पिता फेरूमल पूरी तरह हिन्दू धर्म को समर्पित थे व ज्वाला जी के अनन्य
भक्त थे। आप ने पिता जी के सँस्कारों को ग्रहण किया व देवी को पूर्ण तौर पर समर्पित
हो गए। आप हर वर्ष ज्वाला जी जाते पर मन की बहिबलता घटने की बजाए बढ़ती गई।
आध्यात्मिक भूख की तृप्ति गुरू नानक पातशाह की हजूरी में दूर हुई। गुरू साहिब ने कहा,
‘भाई लहिणा ! तुम्हारा ही इन्तज़ार था’। इस गहरी रमज़ की समझ उस समय भाई लहिणा को न
आई परन्तु गुरू नचन सुनकर लहिणा नानक व नानक लहिणा हो गये। भाई लहिणा गुरू नानक
साहिब की परखों के समक्ष थे, परीक्षा पूर्ण हुई। गुरू पातशाह आप उठे व भाई लहिणा को
गुरगद्दी के सिँहासन पर सुशोभित किया, परिक्रमा की, माथा टेका और संगत में जा बैठे।
फिर बाबा बुढ्ढा जी द्वारा गुरता की रस्म सम्पूर्ण हुई और भाई लहिणा ‘गुरू अंगद’ के
रूप में गुरगद्दी के वारिस बने। गुरू नानक पातशाह ने गुरू अंगद साहिब को श्री खडूर
साहिब जी जाने का हुक्म किया और कहा, ‘शब्द सिद्धान्त से संगत को जोड़ो’। खडूर
पहुँचकर गुरू अंगद देव जी सिक्खी के प्रचार प्रसार के लिए कार्यशील हुए और लँगर में
माता खीवी जी की नियुक्ति ने औरत के सम्मान को शिखर पर पहुँचा दिया। जन्मसाखी व
सिक्ख सिद्धान्त को लिखने की परम्परा चलाकर आपने अहम भूमिका निभाई। आप ने बच्चों की
पाठशाला, मल अखाड़े व गुरमुखी लिपि की शोध-सुधई करके प्रमाणिक रूप देकर यह समझा दिया
कि इस नवोदित धर्म की अपनी लिपि होगी जो ‘गुरमुखी’ के नाम से जानी जाएगी। इस प्रकार
सिक्खी के इस विशिष्ट रूप को और आगे बढ़ाते हुए 48 वर्ष की आयु में 1552 ईस्वी को
खडूर साहिब में आप ज्योति-जोति समा गए और गुरू नानक ज्योति गुरू अमरदास जी में
स्थापित करके तृत्तीय गुरू की उपाधि देकर उन्हें श्री गोइँदवाल साहिब जी जाने का
हुक्म कर गए।
बाणी रचना: 63 श्लोक