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6. रागों की तरतीब एवँ गुरमति सँगीत

राग सँगीत की बुनियाद हैं और सँगीत के महत्व को गुरू साहिबान भली भाँति जानते थे। सारी सूक्ष्म कलाओं में सँगीत शिखर पर आता है क्योंकि यह मनुष्य को विस्माद में ले जाता है। सँगीत का प्रभाव ऐसा होता है कि राह चलते राहगीरों के पाँव अपने अप रुक जाते हैं, पक्षी पँख मारना छोड़ देते हैं, जैसे कि हमें पता ही है कि गुरू नानक पातशाह के शब्द और भाई मरदाना की रबाब हमेशा अंग-संग रहे। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी गुरमति सँगीत के भी भण्डार हैं। गुरमति सँगीत भारत की अन्य सँगीत पद्धतियों से कुछ भिन्न है तथा इसने अन्य सँगीत पद्धतियों को बहुत कुछ दिया है। भारत में सँगीत की यह किस्में प्रमुख हैं: "हिन्दुस्तानी सँगीत", "कर्नाटक" या "दक्षिणी सँगीत", "इस्लामी सूफीआना; काफी सँगीत" एवँ "गुरमति सँगीत"। गुरमति सँगीत अन्य पद्धतियों से इसीलिए विलक्षण है कि इस पद्धति में शब्द की प्रधानता है ‘राग नाद सबदे सोहणे’। यहाँ चौकियों की परम्परा है, अध्यात्मिकता को कलात्मकता से पहल है और अन्य तीन पद्धतियों से अच्छा मेल होने के बावजूद इसकी भिन्न पहचान भी है। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में गुरमति सँगीत के शुद्व रूप में राग के थाट व सुर कायम हैं। इसमें 31 मुख्य राग हैं तथा 30 छाया लग राग हैं जैसे गउड़ी गुआरेरी, गउड़ी चेली आदि। दक्षिणी पद्धति से मिलते ‘मारू दखणी’, ‘रामकली दखणी’ भी हैं और पँजाब के खास ‘मांझ’ व देशी राग– आसा, सूही व तुखारी हैं। इसमें लोक वारों की धुनों पर गाने की हिदायत है जो इसे कठोर शस्त्री अनुशासित पकड़ से मुक्त करके गुरमति सँगीत अनुसारी बनाकर सहज रूप प्रदान करती है। यह लोक सँगीत के गायक रूपों की अपने आप छूट देकर सहज अनुशासन में बाँधती है। गुरमति सँगीत में वारों का गायन, पड़ताल और तबले वाले का गायन में सम्पूर्ण तौर पर शामिल होना, इस पद्धति को हिन्दुस्तानी सँगीत परम्परा, दक्षिणी सँगीत परम्परा एवँ सूफीआना परम्परा से लासानी बनाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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