39. एक कर्ता में विश्वास
सिक्ख धर्म का मूल अकालपुरख है। अकालपुरख के स्वरूप एवँ गुणों का व्याख्यान प्रमुख
तौर पर मूलमँत्र में से ही मिलता है। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के आरम्भ में दर्ज
मूलमँत्र इस प्रकार है: ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं
गुर प्रसादि ॥
ੴ (एक ओअंकार): अकाल पुरख केवल एक है, उस जैसा और कोई नहीं
तथा वह हर जगह एक रस व्यापक है।
सतिनामु: उसका नाम स्थायी अस्तित्व वाला व सदा के लिए अटल है।
करता: वह सब कुछ बनाने वाला है।
पुरखु: वह सब कुछ बनाकर उसमें एक रस व्यापक है।
निरभउ: उसे किसी का भी भय नहीं है।
निरवैरु: उसका किसी से भी वैर नहीं है।
अकाल मूरति: वह काल रहित है, उसकी कोई मूर्ति नहीं, वह समय के प्रभाव से
मुक्त है।
अजूनी: वह योनियों में नहीं आता, वह न जन्म लेता है व न ही मरता है।
सैभं: उसे किसी ने नहीं बनाया, उसका प्रकाश अपने आप से है।
गुर प्रसादि: ऐसा अकाल पुरख गुरू की कृपा द्वारा मिलता है।
यह मँगलाचरण किसी जगह पूरा व किसी जगह लघु स्वरूप में भी गुरू
ग्रँथ साहिब जी में आया है। असल में मूलमँत्र में दिए प्रभु के गुण मनुष्य के भीतर
उतारने तथा उसे प्रभु के समान बनाने का उपदेश पहली बार गुरबाणी ने दिया क्योंकि जीव
अगर परमात्मा के गुणों को अँगीकार कर लेगा तो सँसार में "निरभउ" "निरवैरी" कीमतों
की स्थापना होगी। इन्हीं कीमतों की स्थापना सचखण्ड की स्थापना का मार्ग दर्शन करेगी
और सँसार "बेगमपुरा" बन जाएगा।