37. धर्म की एकता
सिक्ख धर्म की अलग होंद यानि अस्तित्व का एक अपना विलक्षण सँदर्भ है और इस सँदर्भ
का मूल आधार श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी हैं इसीलिए यहाँ इसे विलक्षणता के गुण के तौर
पर सामने लाने का "प्रयत्न" किया जा रहा है। "श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी" की सम्पादना
से पूर्व एक धर्म के लिए दूसरे की मनाही थी। हर कोई अपने धर्म को सर्वोच्च और दूसरे
धर्म के प्रति निरादर दिखा रहा था। धर्म, नफरत व कर्मकाण्ड का रूप धारण का चुका था।
धर्म का कार्य मनुष्य की मुक्ति न रहकर पाखण्ड का रूप धारण कर चुका था। श्री गुरू
ग्रँथ साहिब जी ने सिद्धाँत प्रसँग की स्थापना करते हुए कहा कि धर्म तो एक ही है,
वह है सच्चाई के प्रति विश्वास या निश्चय। अगर सच्चाई दामन में नहीं है तो धर्म
ग्रहण किया ही नहीं जा सकता। श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी ने पाखण्डी रूप धारण कर चुके
धर्म व धर्मी व्यक्तियों का नकाब डालकर घूम रहे लोगों के किरदार को लोगों के सामने
रख दिया। गुरू साहिब ने मुसलमान व हिन्दू की चरित्र सृजना करते हुए ब्यान किया:
रब की रजाइ मंने सिर उपरि करता मंने आपु गवावै ॥
तउ नानक सरब जीआ मिहरमति होइ त मुसलमाणु कहावै ॥१॥ अंग 141
यथा:
सो जोगी जो जुगति पछाणै ।। गुर परसादी एको जाणै ।।
काजी सो जो उलटी करै ।। गुर परसादी जीवतु मरै ।।
सो ब्राहमणु जो ब्रहमु बीचारै ।। आपि तरै सगले कुल तारै ।। अंग 662
गुरू पातशाह ने उपरोक्त सिद्धाँत को अमल में तबदील करते हुए उसका
विभिन्न प्रसँग श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के रूप में स्थापित कर दिया और दुनियाँ के
इकलौते धर्मग्रँथ के रूप में इसकी स्थापना का राज यह था कि बिना किसी धर्म-नस्ल के
भेदभाव के इसमें इस्लाम व हिन्दू धर्म के महापुरूषों की बाणी दर्ज करके :कोई बोलै
राम राम कोई खुदाइ: का आलौकिक नाद धरति-लोकाई की भलाई के लिए सँस्थात्मक रूप में
स्थापित कर दिया। पँचम पातशाह गुरू अरजन देव साहिब जी ने ‘शब्द गुरू’ की स्थापना के
पश्चात सबसे अन्त में इस पर मोहर लगा दी तथा इसे अपनी कृत न कहकर अकालपुरख की
बख्शीश ही माना:
मुंदावणी महला 5
थाल विचि तिनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो ।।
अमृत नामु ठाकुर का पइओ जिस का सभसु अधारो।।
जे को खावै जे की भुंचै तिस पर होइ उधारो ।
एह वसतु तजी नह जाई नित नित रखु उरि धारो ।।
तम संसारु चरन लगि तरीऐ सभु नानक ब्रहम पसारो ।।
सलोक महला 5
तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ।।
मै निरगुणिआरे को गुणु नाही आपे तरसु पइओई ।।
तरसु पइआ मिहारामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ ।।
नानक नामु मिलै ताँ जीवाँ तनु मनु थीवै हरिआ ।।