SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

33. राय बलवण्ड व भाई सत्ता

भाई बलवण्ड व भाई सत्ता गुरू घर के सुप्रसिद्ध कीर्तनकार थे। भाई मरदाना जी के बाद सिक्ख धर्म में इन दोनों को बेहद प्यार व सत्सकार प्राप्त हुआ। सिक्ख धर्म की इन सम्मानयोग हस्तियों का दुखान्त पक्ष यह है कि इनकी जन्म तिथि, स्थान व घर के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिलती। इनकी रचनाओं से इनके जीवन पर नज़र मारी जा सकती है। इनकी रचना जहाँ इन्हें बड़ा विद्वान व युग पुरूष के रूप में स्थापित करती है, वहीं इनकी रचना से यह भी प्रकट होता है कि यह अभिन्न सिक्ख ही नहीं थे बल्कि गुरू सिद्धान्त की पूर्ण तरह से चेतनता वाले भी थे। गुरू सिद्धान्त व गुरू दरबार की शोभा ने इनकी बाणी को आध्यात्मिकता के साथ साथ एक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में भी मान्यता दिलाई है। इन कीर्तनकारों के बारे में एक प्रचलित रवायत भी है कि यह एक बार गुरू घर से बेमुख होकर गुरू दरबार को छोड़कर चले गए, फिर दर दर की ठोकरें नसीब हई और अन्त गुरू घर के पूर्ण गुरसिक्ख भाई लधा जी द्वारा की गई विनती पर आप बख्शे गए। ऐसी कहानियों को असलियत की बजाए प्रतीक रूप में समझना अधिक वाजिब होगा, क्योंकि हउमे (अहँकार) रूपी पहाड़ से जब मनुष्य मुँह के बल गिरता है तो जिन्दगी के सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं। इस कथा में जहाँ हउमे का अवगुण रूपमान होता है, वहीं गुरू घर द्वारा बख्श दिए जाने का सिद्धाँतक प्रसँग भी अपने आप स्थापित हो जाता है– "भाई मरदाना जी के अंश में से दो रबाबी भाई सत्ता जी और भाई बलवंड जी, श्री गुरू अरजन देव जी के दरबार में प्रतिदिन प्रातःकाल नियमानुसार कीर्तन की चौकी भरा करते थे। कीर्तन के आर्कषण से स्वभाविक ही था कि संगत प्रातःकाल के दीवान में अधिक एकत्र हुआ करती थी, इसलिए कीर्तनी भाईयों को अभिमान हो गया कि हमारे द्वारा कीर्तन करने पर ही गुरू दरबार की शोभा बनती है। यदि हम कीर्तन न करें तो गुरूघर की रौनक समाप्त हो जायेगी। उन्हीं दिनों उनकी बहन का शुभ विवाह निश्चित हो गया।  उन्होंने गुरूदेव के समक्ष वेतन के अतिरिक्त आर्थिक सहायता की याचना की। इस पर गुरू जी ने कहा कि आपकी उचित सहायता की जायेगी। किन्तु उन दिनो वर्षा न होने के कारण देश में अकाल पीड़ितो की सँख्या लाखों में पहुँच गई थी। गुरू जी का ध्यान अकाल पीड़ितों की सहायता पर केन्द्रित था। सूखे के कारण दूरदराज से संगत का आवगमन भी कम था, इसलिए गुरू घर की आय में भी भारी कमी आ गई थी। दूसरी और श्री हरिमन्दिर साहिब जी के निर्माण कार्यों पर भी भारी राशि व्यय हो रही थी। गुरू जी का सिद्धान्त था कि धन सँचित करके न रखा जाये। अतः गुरू जी के कोष में सँचित धन का प्रशन ही नहीं था। वह तो जैसे धन आता उसी प्रकार उसका उचित प्रयोग कर देते थे। कीर्तनी भाइयों ने गुरू जी को एक विशेष दिन की समस्त आय (चढ़ावा) उनको देने की प्रार्थना की। गुरू जी ने उनकी इच्छा सहर्ष स्वीकार कर ली, परन्तु विडम्बना यह कि अकाल के प्रकोप के कारण उस दिन संगत का जमावड़ा बहुत कम हुआ, जिस कारण कार भेंट की राशि बहुत ही कम हुई। गुरू जी ने उस दिन की समस्त भेंट सत्ता व बलवंड भाइयों को ले जाने के लिए कह दिया। किन्तु उनके कथन अनुसार वह धन चौथाई था। जब उनकी आशाओं की पूर्ति न हुई तो रोष प्रकट करने लगे। इस पर गुरू जी ने उन्हें समझाया कि हमने सहर्ष ही, आपकी इच्छा के अनुसार दिया है। इसमें रूष्ट होने की क्या बात है ? उत्तर में रबाबी भाइयों ने गुरू जी पर आरोप लगाया कि आपने संगत को इस दिन कार भेंट अर्पण करने से वर्जित कर रखा है, इसलिए तुच्छ धन ही भेंट में आया है। गुरू जी ने उन्हें साँत्वना दी और कहा कि प्रभु भली करेंगे। आप अगले दिन की भी कार भेंट ले जायें। किन्तु वे नहीं माने और कटु वचन कहते हुए घर को चले गये। दूसरे दिन वे सुबह के समय कीर्तन करने भी दरबार में उपस्थित नहीं हुए। गुरू जी ने एक सेवक को सत्ता बलवंड के घर, उनको बुला लाने को भेजा। परन्तु वे लोग योजनाबद्ध कार्यक्रम अनुसार विद्रोह करके बैठे हुए थे। उन्होंने गुरू जी के सेवक का अपमान कर दिया और अभिमान में कहने लगे कि हमीं से गुरू दरबार की शोभा बनती है। यदि हम कीर्तन न करें तो कभी संगत का जमावड़ा हो ही नहीं सकता और हमें ही धन के लिए तरसना पड़ रहा है। गुरू जी ने यह कड़वा उत्तर सुना, परन्तु धैर्य और नम्रता की मूर्ति, एक बार स्वयँ उनको मनाने उनके घर पहुँचे। रबाबी भाइयों ने इस बार भी गुरू जी का स्वागत न करके उनको कटु वचन कह डाले किन्तु गुरू जी शान्त बने रहे। गुरू जी ने उन्हें बहुत समझाया परन्तु वह अपनी हठधर्मी पर अड़े रहे और कहने लगे कि हमारे पूर्वज थे भाई मरदाना जी, जिनके कीर्तन से गुरू नानक देव जी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। श्री गुरू अरजन देव जी ने जब यह वाक्य उनके मुँह से सुना तो वह अपने पूर्व गुरूजनों का अपमान सहन न कर सके। वह तुरन्त वहाँ से लौट गये और समस्त संगतों को आदेश दिया कि इन गुरू निंदकों को कोई मुँह न लगाये। यदि हमसे किसी व्यक्ति ने इनकी सिफारिश की तो हम उसका मुँह काला करके गधे पर बिठकार उसके गले में पुरानें जूतों की माला डालेंगे और समस्त नगर में उसका जलूस निकालेंगे। यह कड़े आदेश सुनकर समस्त संगत सर्तक हो गई। किसी भी व्यक्ति ने उनको मुँह न लगाया। जल्दी ही रबाबी भाइयों का भ्रमजाल टूट गया। उनके पास कोई ओर जीविका अर्जित करने का साधन तो था नहीं, इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति पर सँकट के बादल छा गये। दूसरी तरफ गुरू जी स्वयँ कीर्तन करने लगे। उन्होंने बाल्यकाल में गुरूघर के कीर्तनीयों से कीर्तन व सँगीत की विद्या प्राप्त की हुई थी। उन्होंने संगत को प्रोत्साहित किया आज से हम स्वयँ मिलजुल कर कीर्तन किया करेंगे। वैसे ही कुछ गुरूसिक्ख परिवर्तन चाहते थे और उनके दिल में भी कीर्तन करने की तीव्र अभिलाषा थी। जैसे ही गुरू जी ने अपना प्रिय वाद्ययंत्र सिरंदा लेकर मँच पर कीर्तन करना प्रारम्भ किया, कुछ भक्तजन अन्य वाद्य लेकर साथ में बैठ गये और सहज भाव से कीर्तन करने में सहयोग देने लगे। प्रभु कृपा ने ऐसा समाँ बाँधा कि उनको अन्य दिनों की अपेक्षा आन्तरिक आनन्द की अनुभूति हुई। जिससे समस्त संगत को मनोबल मिला। इस प्रकार गुरू जी ने संगत को आदेश दिया कि प्रतिदिन हम सभी मिलकर प्रभु स्तुति किया करेंगे। जो कि हर दृष्टिकोण से फलदायक होगी। इस प्रकार गुरू जी ने सिक्खजगत में एक नई परम्परा प्रारम्भ कर दी कि संगत में से कोई भी कीर्तन करने के योग्य है। दूसरी तरफ रबाबी सत्ता व बलवंड जी गरीबी के कारण रोगी हो गये। कोई भी उनको गुरू शापित जानकर सहायता न करता, इसलिए व अनेको कष्ट भोगने लगे। किन्तु एक भक्तजन ने उन्हें दुखी जानकर, उनका मार्गदर्शन किया और उन्हें बताया कि एक व्यक्ति लाहौर नगर में रहता है। जिन्हें लोग भाई लद्धा परोपकारी कहकर सम्बोधन करते हैं, वह लोगों के बिगड़े काम करवा देते हैं और हर प्रकार की सहायता करते हैं। यदि वह आपको गुरू जी से क्षमा दिलवा दें तो आपके कष्टों का निवारण हो सकता है। रबाबियों को ये परामर्श उचित जान पड़ा और वे लाहौर नगर पहुँच गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए क्षमा याचना के लिए भाई लद्धा जी से विनती की, जो उन्होंने तुरन्त स्वीकार कर ली। भाई लद्धा जी ने गुरू आदेश अनुसार स्वयँ को दण्ड देने के लिए स्वाँग रच लिया। पहले अपना मुँह काला कर लिया। फिर गले में जूतों की माला पहनकर गधे पर सवार हो गये और पीछे ढोल बजवाना शुरू कर दिया। इस प्रकार वह गुरू दरबार में उपस्थित हो गये। गुरू जी ने उनका स्वाँग देखा और मुस्कुरा दिये और कहा– भाई लद्धा जी, आप वास्तव में परोपकारी हैं। आपकी सिफारिश हम टाल नहीं सकते। अतः हम इन रबाबियों को क्षमा करते हैं। यदि दोनों भाई पूर्व गुरूजनों की स्तुति करें। रबाबी भाइयों ने गुरू जी के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और कहा– हम अपने किये पर शर्मिंदा हैं। हमें अब तक बहुत दण्ड मिल चुका है और वे पूर्व गुरूजनों की स्तुति में छँद उच्चारण करने लगे। इन रचनाओं को बाद में गुरूदेव ने मान्यता प्रदान कर दी और अपने नये सम्पादित ग्रँथ में सम्मिलित कर लिया, जिन्हें आज सत्ता-बलवंड की वार कहा जाता है।" इन दोनों महापुरूषों की बाणी की कुल 8 पउड़ियाँ हैं जिनमें से पाँच पउड़ियों की रचना राय बलवण्ड जी की है और तीन पउड़ियों के रचियता भाई सत्ता जी हैं। यह रचना रामकली राग में अंकित है तथा इसका शीर्षक है:

रामकली की वार राइ बलवंड तथा सतै डूमि आखी।

राय बलवण्डजी की पउड़ियों में गुरू नानक पातशाह द्वारा भाई लहिणा को गुरगद्दी देकर गुरू अंगद के रूप में स्थापित करना और गुरू अंगद देव जी के समय सिक्खी के विकास के रूप का प्रकटाव है। भाई सत्ते द्वारा रचित पउड़ियों में गुरू अंगद देव जी से लेकर पँचम पातशाह हजूर तक के काल के सफर को रूपमान किया गया है। इन दोनों की रचनाओं का रूप इस प्रकार है:

भाई बलवण्ड:
लहणे दी फेराईऐ, नानका दोही खटीऐ ।।
जोति ओहा जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीऐ ।।  अंग 966

भाई सत्ता:
दूणी चउणी करामाति, सचे का सचा ढोआ ।।
चारे जागे चहु जुगी, पंचाइणु आपे होआ ।।  अंग 968

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.