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2. श्री आदि ग्रँथ साहिब जी

सिक्ख धर्म का प्रारम्भ गुरू नानक पातशाह ने किया और सिक्खी के इस पवित्र पौधे को नौ अन्य गुरू साहिबान ने सींचा, पाल-पोसा, सम्भाला तथा बड़ा किया। गुरू नानक पातशाह के दिए हुए सिद्धाँतों व सिक्खी के इस पौधे को फल लगने तक 230 वर्ष का समय लगा तथा इस पौधे के पवित्र फल का नाम ‘खालसा’ रखा गया। खालसा वह सर-ज़मीन थी जो केवल एक अकाल पुरख के अधीन थी। उसका किसी सामाजिक बर्ताव के अहलकार की अधीनगी में आने का सवाल ही नहीं था। इसका स्पष्ट प्रकटाव खालसाई बोल से हो जाता हैः

वाहिगुरू जी का खालसा ।। वाहिगुरू जी की फतहि ।।

इस वाहिगुरू के खालसे को अकालपुरख (परमात्मा, ईश्वर) ने अपने अलौकिक नाद के रूप में भेजा, जिसके हुक्म में चलते हुए इसने अपनी ज़िन्दगी व्यतीत करनी थी। उसी ‘अलौकिक नाद’ को दसम पातशाह श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने गुरगद्दी के समय ‘गुरू मानयो ग्रँथ’ का निराला हुक्म जारी कर दिया। इस पवित्र शब्द को खालसा हृदयों ने इस प्रकार सम्भाला हुआ है:

आज्ञा भई अकाल की, तबै चलायो पंथ ।।
सब सिक्खन को हुक्म है,गुरू मानयो ग्रंथ ।।

गुरू नानक पातशाह ने ‘धुर की बाणी’ का स्वयँ उच्चारण भी किया व सम्भाला भी। आप जी ने इस बाणी को ‘खसम की बाणी’ जानकर अति आदर–सत्कार का ढँग मानवता को समझाया तथा इस नवीन धर्म की विलक्षण पहचान को सैद्धाँतिक तौर पर स्थिर किया। यह पहली बार था। कि परमात्मा के अस्तित्व के सँकल्प में सरगुण व निरगुण, निरभउ व निरवैर, "दिखते सँसार व अदृश्य ब्रह्माँड" की विशालता में निरँतरता को "एक ओंकार" का विस्तार बताया। हर कोई दुनिया के फर्ज निभाते हुए भी धर्मी जीवन व्यतीत कर सकता है। इस सबका विस्तार शब्द गुरू द्वारा होना बताया है। गुरू नानक पतशाह का अकीदा मनुष्य जाति को ‘शब्द गुरू’ से जोड़ने का था ताकि मानवता को वहम-भ्रम के व्यर्थ चक्करों में से निकालकर एक अकालपुरख (परमात्मा) की आराधना के लिए प्रेरित किया जाए। गुरू अंगद पातशाह ने इस बाणी की सम्भाल व विस्तार अपने गुरूकाल में किया तथा गुरमुखी लिपि का श्रँगार व प्राचर किया जिसमें इस बाणी की सम्भाल हो रही थी। गुरू अमरदास जी के समय गुरू घर का विरोध कुछ ज्यादा ऊँचे सुर में हुआ तथा कच्ची वाणी की रचना भी होने लग पड़ी जिसे अलग करने के लिए गुरू साहिब ने बाणी में ही इसका निर्णय दे दिया:

सतिगुरू बिना होर कची है बाणी ।।
बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ।।
कहदे कचे सुणदे कचे कची आखि बखाणी ।।  अंग 920

गुरू रामदास जी ने सँगीत व राग के पक्ष में बाणी की कलात्मकता को शिखर तक पहुँचाया। साथ ही आप जी ने बाणी व गुरू में अभेदता को स्पष्टता के साथ ब्यान किया:

बाणी गुरू गुरू है बाणी विचि बाणी अंमृतु सारे ।।
गुरु बाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरू निसतारे ।।  अंग 982

गुरू अर्जुन देव जी ने सबसे ज्यादा बाणी रचना तथा सम्पूर्ण बाणी का सँकलन व सम्पादन करके इसे ‘श्री आदि ग्रंथ साहिब जी’ का नाम दे दिया। यह दुनियाँ का प्रथम ऐसा धार्मिक ग्रँथ हुआ जिसका सम्पादन स्वयँ धर्म के प्रवर्तक ने किया। ‘आदि ग्रंथ’ के प्रथम प्रकाश के पश्चात गुरू साहिब ने अपना सिँहासन नीचा कर लिया और संगत को बाणी के सत्कार व प्यार का ढँग सिखाया। श्री गुरू हरिगोबिन्द साहिब ने इस बाणी के प्रचार व प्रसार के लिए ‘आदि ग्रंथ’ के बहुत से स्वरूप तैयार करवाए तथा सबसे ज्यादा उतारे गुरू हरि राय साहिब के समय हुए मिलते हैं। बाणी के अदब-सत्कार को कायम रखने के लिए पुत्र का त्याग भी करना पड़ा तो आपने राम राय को मुँह न लगाया और योग्यता को प्रमुख रखते हुए गुरू हरिकिशन साहिब को गुरगद्दी सौंप दी। गुरू तेग बहादुर साहिब जी ने इस बाणी के प्रचार प्रसार के लिए बहुत प्रचारक दौरे किए, स्वयँ बाणी का उच्चारण किया तथा एक नया राग ‘जैजावंती’ का प्रयोग भी किया। गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने पाऊँटा व आनन्दपुर साहिब में बाणी की सम्भाल, लिखाई व व्याख्या का विशाल स्तर पर प्रबन्ध किया तथा तलवँडी साबो में आज की मौजूदा ‘श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी’ की बीड़ का स्वरूप तैयार करवाया, जिसे नांदेड़ में गुरगद्दी सौंपकर, स्वयँ माथ टेककर, गुरू ज्योति उसमें टिकाकर, सिक्खों को उसके अधीन कर दिया। इस प्रकार आपने गुरू पँथ को ‘श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी’ के अधीन कर दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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