18. भक्त पीपा जी
भक्त बाणी शीर्षक के अधीन दर्ज बाणियों में भक्त पीपा जी का एक शब्द राग धनासरी में
श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के अंग 695 पर दर्ज है। इनके बारे में मान्यता है कि यह
राजस्थान के राजपूत राजा थे और एक छोटी सी रियासत गगरौन गढ़, इनके अधिकार में थी।
बहुत जल्दी ही राजशाही की विलासिता से इनका मन भर गया और इनकी उदासीनता ने घर वालों
की चिन्ता में बढ़ावा किया। इन्हें समझाने की प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन असफल रही।
इनके चित में एक इच्छा प्रबल हो गई कि प्रभु क्या है और ईश्वरीय मेल कैसे होता है ?
इस प्रबलता ने इनके दिनों का चैन व रातों की नींद खराब कर दी और आपने सब कुछ भुला
दिया। माना जाता है कि इस अवस्था में आपका मेल स्वामी रामानँद जी से हुआ। आपने इनके
प्रवचन सुने, शाँति मिली तथा हाथ जोड़कर विनती की कि शिष्य बना लो। हुक्म हुआ कि इतनी
जल्दी है तो कुएँ में छलांग मार दो। यह शब्द सुनते ही आप कुएँ की ओर दौड़ पड़े लेकिन
छलाँग मारने से पहले ही भक्त रामानँद जी के चेलों ने पकड़ लिया और रामानँद जी ने
इन्हें छाती से लगा लिया। भक्त पीपा जी ने अपने शरीर को मन्दिर की सँज्ञा देकर बाणी
की रचना की है, जो इस प्रकार है:
कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ।।
काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजहु पाती ।।
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ।। रहाउ ।।
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ।।
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरू होइ लखावै ।। अंग 695
स्पष्ट है कि देवी देवताओं की पूजा के स्थान पर निराकार ब्रह्म
को अपने हृदय में खोजने का प्रसँग आपकी बाणी में से मिलता है।