16. भक्त रविदास जी
अपने इतिहास व विरासत के गौरव को सम्भालने की प्रवृति भारतीय जन जीवन में हमेशा
अलोप रही है। यही कारण है कि विरासत का बहुत गौरव अपनी खुशबू फैलाने की बजाये पर
समय के चक्कर में दफन होकर रह गया। काशी में एक कालू नाम का चमार रहता था, जो जूतों
को बनाने का कार्य करता था। कालू की पत्नी श्री लखपती माई जी की कोख से संतोख दास
का जन्म हुआ। बहुत ही अच्छे तरीके से बच्चे की पालना की गई। जवान होने पर इसकी शादी
गाँव हाजीपुर में हारू चमार की सुपुत्री श्री कौंस देवी के साथ की गई। माता कौंस
देवी बड़े सुशील स्वरूप और ऊँचें विचारों वाली देवी थी, पति सेवा में अपना जीवन सफल
होना समझती थी। इस भाग्यशाली जोड़े ने बहुत समय तक परमात्मा की अराधना की और मन में
कामना की कि हमारे यहाँ पर भक्त पुत्र पैदा हो ताकि हमारे कुल का उद्धार हो सके।
घट-घट के जाननहार दीनानाथ ने दोनों की फरियाद सुन ही ली। उनके घर में संवत 1471 सन
1414 दिन रविवार पहिर रात रहते समय पुत्र की प्राप्ति हुई। गुरू नानक पातशाह की
ईलाही नज़र ने इस हीरे को पहचाना और सिक्ख धर्म में इनकी रचना को शामिल कर इतिहास
में शाश्वत कर दिया। यह निश्चित है कि इनका जन्म बनारस के आसपास के किसी स्थान पर
हुआ और आपका सम्बन्ध चमार जाति से था। इसका प्रकटाव गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज इनकी
बाणी करती है।
नागर जनाँ मेरी जाति बिखिआत चंमारं ।। अंग 1293
ऊँची जाति के लोगों द्वारा जो दुर्व्यवहार निचले वर्ग से किया
जाता था, उसका स्पष्ट उल्लेख इनकी बाणी से हो जाता है। ब्राह्मण की कर्मकाण्डी
ज़िन्दगी, वर्ण धर्म का दम्भी व शोषणकारी चेहरा, हुक्मरान का दुराचारी रूप तथा
जनसाधारण का इन्हीं हालातों में ज़िन्दगी जीना, यह इनकी रचना में स्पष्ट नज़र आता है।
सामाजिक दम्भ की पाज उखाड़े जाने के अलावा आप जी की बाणी में परमात्मा के प्यार का
पात्र बन "बेगमपुरा" की स्थापना, कर्मकांड की विरोधता, सँयमी जीवन और विषय-विकारों
का बहुत ही खूबसूरत ढँग से वर्णन किया गया है।
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