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13. श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी

1621 ईस्वी में गुरू के महल, अमृतसर में छठे गुरू, श्री गुरू हरिगोबिन्द साहिब व माता नानकी जी के घर (गुरू) तेग बहादर साहिब जी का जन्म हुआ। आप जी की परवरिश की जिम्मेवारी बाबा बुढ्ढा जी व भाई गुरदास जी जैसी देवी रूहों की देखरेख में हुई। बाबा बुढ्ढा जी ने जहाँ बचपन से आप जी को नानक नूर से अवगत कर दिया था, वहीं आपको सैनिक गुणों व जँगी हुनरों में भी प्रवीण करके गुरू जैसी शूरवीर शख्सीयत तैयार कर दी थी। भाई गुरदास जी ने आपको धर्मों के दार्शनिक पक्षों का गहरा ज्ञान कराते हुए ब्रज, सँस्कृत, पँजाबी आदि भाषाओं से पूरी तरह अवगत करा दिया था। आप 1635 ईस्वी में छठे पातशाह के साथ कीरतपुर साहिब आ बसे और गुरू पिता के ज्योति-जोति समाने के बाद आपने अपनी माता नानकी जी व पत्नि गूजरी जी के साथ बाबा बकाला में निवास कर लिया। आठवें पातशाह गुरू हरिकिशन साहिब ने ज्योति-जोति समाने से पूर्व संगत को ‘बाबा बसे ग्राम बकाले’ का हुक्म दिया था। यहाँ ही भाई मक्खण शाह लुबाणा ने 22 मँजियों पर बैठे पाखण्डियों का पाज उखाड़कर ‘गुरू लाधो रे’ का नारा दिया और असली गुरू (तेग बहादर जी) को खोज लिया। गुरू साहिब इन ढोंगियों की कलह को देखते हुए श्री कीरतपुर साहिब जी चले गए और वहाँ से पाँच मील की दूरी पर माखोवाल के स्थान पर जगह खरीदकर श्री आनंदपुर शहर बसा दिया। आप जी ने सिक्खी के प्रचार हित दूर-दूर तक यात्राएँ की। इन यात्राओं से सिक्ख धर्म को बहुत बल मिला और सिक्ख धर्म की सिफत-सालाह (तारीफ) देश के कोने कोने तक फैल गई। औरँगजेब की कट्टरवादी नीतियों से दुखी होकर कश्मीरी पंडितों का एक काफिला आनंदपुर साहिब पहुँचा और उन्होंने गुरू साहिब के आगे बचाव के लिए विनती की। सिक्ख धर्म के ‘जो शरण आए तिस कंठ लाए’ के वाक्य को सच करते हुए गुरू साहिब 1675 ईस्वी को दिल्ली में अपने तीन सिक्ख– भाई मतीदास, भाई सतीदास व भाई दयाला जी के साथ शहादत का जाम पी गए और ‘हिन्द की चादर’ कहलाए।

बाणी रचना: 116 शब्द, 15 रागों में

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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