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11. श्री गुरू रामदास साहिब जी

भाई जेठा जी (गुरू राम दास जी) का जन्म 1534 ईस्वी में लाहौर शहर में हुआ। आप जी के पिता जी का नाम हरिदास व माता जी का नाम दया कौर था। आपका सम्बन्ध सोढी कुल से था और पारिवारिक व्यवसाय दुकानदारी था। सात वर्ष की उम्र में ही माता पिता का साया आपके सिर से उठ गया। आपकी गरीब नानी आपको अपने पास बासरके ले आई और यहाँ ही आप की पहली मुलाकात तृत्तीय गुरू हजूर से हुई। भाई जेठा के लिए पहला कर्म गुरू घर की सेवा थी, पर इसके साथ-साथ वृद्ध नानी की जिम्मेवारी का अहसास भी था, इसीलिए जीविका के लिए पहले आप घुँघणियाँ (उबले चने) बेचते और कमाई नानी जी के हवाले करके गुरू घर पहुँच जाते। गुरू अमरदास साहिब आप को बहुत गौर से देखते और गुरू घर की सेवा में जुड़े इस नौजवान में गुरू साहिब को सिक्खी का अगला वारिस नज़र आने लगा। गुरू पातशाह ने अपनी साहिबजादी बीबी भानी के साथ आपका विवाह करके आपको गले से लगाया। उस समय भाई जेठा की आयु 19 वर्ष हो चुकी थी। विवाह के पश्चात् आपके घर तीन पुत्र पैदा हुए– पृथीचँद, महादेव व (गुरू) अरजन देव साहिब जी। 1574 ईस्वी में तीसरे पातशाह ने गुरू रामदास जी को गुरगद्दी की बखशीश कर गुरू पद पर सुशोभित कर दिया। तीसरे पातशाह ने गुरू के चक्क की जिम्मेवारी पहले ही आप जी को सौंप दी थी। आप गुरगद्दी पर विराजमान होने के उपरान्त वहाँ ही जा बसे और शहर में 52 भिन्न भिन्न व्यवसायों के लोगों को बसाया। यह सिक्ख इतिहास में पहला नगर है जो किसी नदी के तट पर नहीं है। गुरू रामदास जी ने दो सरोवर– रामसर व सँतोखसर की खुदाई का कार्य भी आरम्भ किया। सिक्ख धर्म के पैरोकारों की सँख्या में उस समय तक बहुत बढ़ावा हो चुका था, इसीलिए आपने मसँद प्रथा की स्थापना की। इनका कार्य दूर दूर के क्षेत्रों में जाकर गुरू नानक जी के सिद्धान्त का प्रचार करना था। गुरू रामदास जी की सँगीत को बहुत बड़ी देन है। आप जी ने 30 रागों में बाणी का उच्चारण किया और इन रागों की प्रवीनता व परिपक्वता में बहुत मूल्यवान योगदान डाला। श्री गुरू पातशाह ने जब अनुभव कर लिया कि समय पास आ चुका है तो संगत को बुलाया व कहा कि गुरू रूप में अरजन देव ही उनके मार्गदर्शक होंगे। फिर बाबा बुढ्ढा जी को हुक्म हुआ कि गुरगद्दी सौंपने की रस्म निभाई जाए। परम्परागत ढँग से आपने श्री गुरू अरजन देव जी की परिक्रमा की, माथा टेका और आप संगत रूप हो गए। अब सिक्खी के पौधे को पालने पोसने की जिम्मेवारी पाँचवे पातशाह के रूप में श्री गुरू अरजन देव साहिब जी पर सुशोभित थी।

बाणी रचना: 638 शब्द, 30 रागों में

प्रमुख बाणियाँ: 8 वारे: सिरी रागु, गउड़ी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठ, बिलावल, सारंग व कानड़ा राग में, घोड़ीआ, पहरे, करहले, बणजारा तथा सूही राग में सिक्ख के ‘अनंद कारज’ (विवाह) के समय पढ़ी जाने वाली लावां की बाणी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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