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67. श्री आनंदपुर साहिब जी का प्रथम युद्ध

खालसा पँथ के निर्माण से पर्वतीय नरेशों में बेचैनी बढ़ गई थी। उन्होंने समझा कि गुरू जी खालसों की फौज बनाकर अपना राज्य कायम करना चाहते हैं। वे भूल गए कि खालसा तो सजाया गया था, पुरानी सामाजिक कमजोरियों को दूर करने, अत्याचारों से टकराने और सुरक्षा के लिए। असल में वे भूले नहीं थे, पर उनका अपना मन चोर था, इसलिए डरते थे। भँगाणी के युद्ध में हारकर उन्होंने गुरू जी के साथ सँधि कर ली थी पर गुरू जी की बढ़ती शक्ति देखकर अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या कर रहे थे और गुरू जी को नीचा दिखाने के लिए कोई न कोई बहाना ढूँढते रहते। जब उन्होंने यह सुना कि गुरू साहिब जी की अपने सिंघों समेत शिकार खेलते समय दो पहाड़ी राजाओं, बालियाचँद और आलमचँद की फौजी टुकड़ियों से झड़प हो गई जिसमें बालियाचँद तो प्राणों से हाथ धो बैठा और दूसरे की एक बाँह तोड़कर मैदान से भाग दिया तो पहाड़ी राजाओं के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उन्हें अपना डर ही खाने लगा। वह स्वयँ तो गुरू जी के विरूद्ध प्रयत्न कर चुके थे पर कोई बात बनी नहीं थी। वरन हर बार मुँह की खानी पड़ी थी। अतः अब उन्होंने औरँगजेब को चिटठी लिखकर उसको भड़काने की सोची। गुरू साहिब के पुराने शत्रु भीमचँद कहिलूरिये, वीरसिंघ जसवालिये और मदनलाल सिरमूरिये ने मिलकर पँजाब में औरँगजेब के राज्यपाल सरहन्द के सूबेदार के आगे विनती की कि उसकी प्रार्थना दिल्ली के बादशाह के पास भेज दी जाये। प्रार्थना पत्र में लिखा था कि हिन्दूओं और मुस्लामानों से पृथक, गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने एक नया मजहब बना लिया है। वे न केवल हिन्दू धर्म की जड़ उखाड़ना चाहते हैं वरन मुगल सम्राट की भी सता उलटना चाहते हैं। जब हमने गुरू जी को इक्टठे होकर इस मिशन से हटाने का प्रयत्न किया तो उन्होंने भँगाणी के युद्ध में हमें पछाड़ दिया। इस पत्र में केवल अपना ही रोना नहीं रोया था वरन कुछ अनगर्ल बातें भी जोड़ी गई थीं। यह भी लिखा गया था कि गुरू जी पहाड़ी राजाओं को मुगल शासन के विरूद्ध लड़ने के लिए कहते हैं। औरँगजेब को लिखित भेजने वाले अपने दरबारी द्वारा खालसा पँथ सजाये जाने की सूचना और उस समय गुरू जी द्वारा दिये गये भाषणों की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। एक मुस्लमान इतिहासकार गुलाम मोहिउदीन के कथनानुसार इस दरबारी ने गुरू साहिब के भाषणों की सूचना देते हुए ऐसे लिखा– श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने हिन्दूओं की जाति-पाति, वहम, भ्रम, रीति-रिवाज आदि को समाप्त करके सिक्खों को एक ही भाईचारे में गठित कर दिया है, जिसमें न कोई बड़ा है और न छोटा। एक ही बाटे में सभी जातियों को खाना खिलाया जाता है। भले ही कुछ प्राचीन हठधर्मियों ने इस बात का विरोध किया। फिर भी लगभग बीस हजार पुरूष महिलाओं ने गुरू साहिब के हाथों खण्डे बाटे का अमृतपान किया है और यही सँख्या बाद में 20 हजार से लगभग 80 हजार हो गई। गुरू जी ने सिक्खों को यह भी कहा है कि मैं अपने आपको गुरू गोबिन्द सिंघ तभी कहलवाऊँगा, जब चिड़ियों से बाज लडवाऊँगा और एक-एक सिक्ख दुश्मन के सवा-सवा लाख व्यक्तियों के टक्कर लेता दिखाई देगा। औरँगजेब तो पहले से ही क्रोध में था कि सिक्ख न तो दिलावर खाँ के काबू आए और न ही उसके पुत्र बहादुरशाह के। पहाड़ी राजाओं की चिटठी पढ़कर तो उसके तन-बदन में आग लग गई। उसी समय उसने दो, पाँच हजारी जनरलों, पैदेखाँ और दीनाबेग को हुक्म दिया कि वे पहाड़ी राजाओं की सहायता के लिए श्री आनंदपुर साहिब पर आक्रमण करें। पहाड़ी राजाओं को चिटठी के उत्तर में यह कहा गया कि इस सारी हिमायती और फौज का खर्चा उनको झेलना होगा, जिन्होंने पत्र लिखा था, वह राजा लोग खर्चा उठाने को तुरन्त तैयार हो गये। अन्ततः श्री आनंदपुर के समीप मुगल और पहाड़ी फौजें इक्टठी हो गई। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के सिक्ख तो पहले ही अमृत छककर आए थे। दुश्मन की फौजें देखकर उन्हें चाव चढ़ गया। उन्होंने यह चिन्ता बिल्कुल नहीं की कि मुगलों और पहाड़ियों की मिलीजुली फौजें उनसे कई गुना अधिक हैं और पैदेखाँ तथा दीनाबेग जैसे अनुभवी जनरल उनकी फौजों की कमान सम्भाले हुए हैं। अकालपुरख पर भरोसा करके सिक्ख लड़ाई के मैदान में कूद पड़े। उनकी अगवाई करने के लिए गुरू जी ने पाँच प्यारे नियुक्त किए और स्वयँ फौजो सहित रणभूमि में उतर आए। खालसे ने गोलियों की वह अन्धाधुन्ध वर्षा की कि शत्रु दम तोड़ उठा। पैदेखाँ ने फौजों के हौंसले बढ़ाने के लिए ऊँची आवाज में कहा: यह आपकी काफिरों के विरूद्ध मजहबी लड़ाई है। काफिरों को मारकर बहिश्त हासिल करो। लेकिन मौत के मुँह में कौन जाए। मजहबी उकसाहट भी कुछ काम न कर सकी। आखिर पैदेखाँ ने गुरू जी को ललकारा कि आओ: अकेले ही दो हाथ करके लड़ाई की हार जीत का फैसला कर लें। यह ललकार सुनकर गुरू साहिब अपना घोड़ा पैदेखाँ के निकट ले आए और कहा: पठान पैदेखाँ, मैं हूँ गोबिन्द सिंघ तेरा दुश्मन। पैदेखाँ ने कसम खाकर कहा: कि मैं पठान नहीं यदि सिक्खों के गुरू का सिर उतारकर न रख दूँ। अहँकार में आकर उसने गुरू साहिब जी से कहा– ले तू कर पहला वार। गुरू जी ने मुस्कुरा कर कहा: मैंने आज तक पहला वार किसी पर नहीं किया, न करूँगा। सुरक्षा हेतु लड़ता रहा हूँ और लड़ता रहूँगा। इसलिए पहला वार तू कर। पैदेखाँ ने अपना घोड़ा घूमाकर गुरू साहिब जी के सामने लाकर खड़ा कर दिया। एक सैकेंड में पैदेखाँ ने तीर निकाल कर मारा जो गुरू जी की कनपटी के पास से होता हुए सूँ करता हुआ निकल गया। गुरू जी ने ताना देते हुए कहा: बड़ा भारी तीरँदाज दिखाई देता है। चल, एक एक बार और वार करके देख। तेरे अरमान न रह जाएँ कि गुरू को मारने का अवसर नहीं मिला। पैदेखाँ ने दूसरा तीर निकाल कर मारा: वह भी निशाने पर न बैठा। शर्मिन्दा होकर पैदेखाँ मुड़ने लगा। तो गुरू जी ने ललकार कर कहा– ठहर जा कहाँ जाता है गीदड़। अब मेरी बारी है। मेरा हाथ भी देखता जा। पैंदे खाँ का सारा शरीर लोहे के कवच से ढका हुआ था। केवल कान ही नँगे थे। गुरू साहिब ने कानों का निशाना ताड़कर ऐसा तीर मारा कि पैदेखाँ घोड़े से गिरकर मर गया। यह देखकर दूसरे मुस्लमान जनरल दीना बेग ने फौजों को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। पैदेखाँ को मरता देखकर मुगल फौजें सिरधड़ की बाजी लगाकर आगे बढ़ीं और सिक्खों पर टूट पड़ी। किन्तु सिक्खों के पैर न उखड़े। बल्कि सिक्ख फौजों ने दुश्मन का भारी नुकसान किया। यह देखकर राजा भीमचँद का पुत्र अजमेरचँद मुगल और अपनी फौजों सहित भाग खड़ा हुआ। शेष पहाड़ी राजा भी भाग गए। अब तक दीना बेग भी जख्मी हो चुका था। उसने सोचा कि जिनके लिए वह लड़ने आया था, जब वही भाग निकले तो वह व्यर्थ में अपनी फौजों का नुकसान क्यों कराए ? उसने फौजों के पीछे हटने की आज्ञा दी। दुश्मन को पीछे हटता देखकर सिक्ख फौजों के हौंसले बढ़ गये और वह उनका पीछा करते हुए रोपड़ पहुँच गए। पर गुरू साहिब जी ने सिक्खों से कहा कि सिक्खों की युद्ध मर्यादानुसार भागते हुए दुश्मन कों यहीं नहीं मारना चाहिए। अतएव सिक्ख फौजें रोपड़ से वापिस आ गईं और उन्होंने भागते हुए मुगलों का और पीछा नहीं किया।

श्री आनंदपुर की पहली लड़ाई इस प्रकार सिक्खों की विजय के साथ समाप्त हुई। यह लड़ाई सन 1700 ईस्वी में लड़ी गई थी, जब गुरू साहिब जी केवल 34 वर्ष के थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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