52. नादौन का युद्ध
सब पहाड़ी राजा मुगल बादशाह को कर देते थे। प्रतिवर्ष यह कर एकत्र करने का कार्य
लाहौर का सूबेदार करता था। पहाड़ी राजा अपना अँशदान लाहौर पहुँचा देते थे, वहाँ का
नवाब वह समूचा धन दिल्ली औरँगजेब के खजाने में पहुँचा देता था। तीन चार वर्ष तक यह
धन बादशाह को नहीं पहुँचा, क्योंकि राजाओं ने धन लाहौर तक पहुँचाया ही नहीं था।
बादशाह ने लाहौर के सूबेदार को सन्देश भेजा तथा कर की राशि माँगी। सूबेदार विवश था,
उसके पास धन पहुँचा ही नहीं था। औरँगजेब बड़ा सँवेदनशील बादशाह था उसने सोचा कि जरूर
लाहौर का सूबेदार धन का अनुचित प्रयोग कर रहा है, इसलिए उसका दमन अनिवार्य है। अतः
बादशाह ने शाही सेना के दो सेनापतियों मीयाँ खाँ तथा जुल्फिकारअली खाँ को बड़ी सेना
देकर लाहौर भेज दिया। लाहौर का सूबेदार स्थिति से घबरा गया, किन्तु बादशाह तक
पहुँचाने के लिए धन तो उसके पास नहीं था। सूबेदार ने सारी बात सेनापतियों को बता
दी। परिणामतः मीयाँ खाँ तो जम्मू की ओर कर उगाहने के लिए चल पड़ा और उधर काँगड़ा की
ओर से पहाड़ी राजाओं से उगाही करने के लिए सूबेदार ने अपने भतीजे अलिफ खाँ को एक बड़ी
सेना देकर भेज दिया। अलिफ खाँ सीधा काँगड़ा पहुँचा। काँगड़ा का राजा कृपालचन्द स्थिति
को समझ गया और लड़ने में अपने को असमर्थ मानकर उसने कर की राशि अलिफ खाँ को देकर
क्षमा माँग ली। साथ ही अपनी पुरानी शत्रुता का बदला लेने के लिए उसने उसे भीमचँद के
विरूद्ध भड़का दिया। इस दुष्कर्म में उसका साथ पड़ौसी राज्य बिझड़वाल के राजा दयालचँद
ने दिया। इन दोनों ने भीमचँद के विरूद्ध लड़ने के लिए अलिफ खाँ के साथ युद्ध भुमि पर
चलने का भी प्रस्ताव स्वीकार किया। अलिफ खाँ, कृपालचन्द व दलायचन्द की सँयुक्त
सेनाओं ने कहिलूर की सीमा पर नदी तट के पास ऊँची जगह पर नादौन में अपने मोर्चे बना
लिए। साथ ही उन्होंने लकड़ी के तखतों की एक लम्बी बाढ़ बना ली और उसके पीछे से गोलियों
और बाणों को शत्रु सेना पर बरसाने का आयोजन कर लिया। युद्ध की तैयारियाँ होने के
बाद अलिफ खाँ ने भीमचँद के पास सन्देश भेजा कि तुमने कई वर्षों के कर की राशि का
भुगतान नहीं किया। अतः एकदम सारी राशि का भुगतान करो अन्यथा हमारी सेनाएँ कलिहूर की
सीमा पर पहुँच चुकी हैं। जब तुम्हारे राज्य पर आक्रमण करके तुम्हें बन्दी बना लेंगे
ओर चौगुनी राशि लेकर ही तुम्हें छोड़ा जाएगा।
लाहौर के सूबेदार तथा बादशाह औरँगजेब के तरफ से आपको सावधान किया
जाता है, उचित उत्तर ने मिलने की सूरत में राज्य पर आक्रमण कर दिया जायेगा। भीमचँद
को यह भी पता चल गया था कि उसके पड़ौसी राजा कृपालचँद और दयालचँद भी अलिफ खाँ की
सहायता के लिए साथ आये हैं। वह स्थिति से आतँकित हो उठा। उसके पास देय राशि भी
उपलब्ध नहीं थी, अन्यथा कर का भुगतान करके इस मुसीबत से छुटकारा पा लेता। युद्ध के
बादल सामने घिरते हुए दिखाई देने लगे, अतः इसका कोई विकल्प न पाकर उसने भी लड़ने की
तैयारी शुरू कर दी। अपने मित्र राजाओं को सहायता के लिए बुलाने को सन्देशवाहक भेजे।
तभी उसके मँत्री ने उसे गुरू जी की याद दिलवाई। आप श्री आनंदपुर साहिब के श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी को अपनी सहायता के लिए क्यों नहीं बुलाते। उन्होंने तो आपको मुगलों
के विरूद्ध कुछ भी सहायता का वचन दिया था। कहिलूर नरेश भीमचँद को गुरू जी की सहायता
से युद्ध जीतना स्वाभिमान के विरूद्ध लग रहा था, किन्तु मरता क्या न करता, उसने गुरू
जी को सन्देश भिजवा दिया। गुरू जी ने सन्देशवाहक को यह कहकर लौटा दिया कि वे एकदम
उसके पीछे-पीछे ही युद्ध भूमि में पहुँच रहे हैं। भीमचँद निर्भय रहे। उधर भीमचँद के
मन में यह था कि गुरू जी के पहुँचने से पहले ही यदि व अलिफ खाँ पर विजय पा जाये तो
इससे गुरू जी पर एक बार तो उसकी धाक बैठ सकेगी। यही सोचकर वह गुरू जी के पहुँचने के
पहले ही अलिफ खाँ की सेनाओं से जा टकराया। अलिफ–कृपाल–दयाल की सँयुक्त सेनाओं ने
लकड़ी की बाढ़ के उस पार से गोलियों की और तीरो की बौछार की जिससे भीमचँद की सेना के
असँख्य सैनिक मारे गये।
गुरू जी जब अपने शूरवीरों के साथ युद्ध भूमि पर पहुँचे तो
उन्होंने भीमचँद की र्दुगति होते देखी। साथ ही उन्होंने यह भी महसूस किया कि अभिमान
होने के कारण ही वह पिट रहा था, इसलिए पहले तो गुरू जी चुपचाप तमाशा देखते रहे,
किन्तु भीमचँद की विनती पर फिर आगे बढ़ना स्वीकार कर लिया। गुरू जी ने अपने चुने हुए
वीरों को साथ लेकर गोलियों और तीरों की बौछारों की परवाह न करते हुए तेजी से आगे बढ़े।
लकड़ी की बाढ़ के पीछे छिपे शत्रु सैनिकों को निकालने के लिए भीतर अग्नि-शस्त्र चलाये
गये। भयानक युद्ध हुआ। राजा दयालचँद गुरू जी की गोली से मारा गया। उसके सैनिकों का
साहस भी दम तोड़ने लगा। भीमचँद गुरू जी की युद्धकला देखकर दाँतों तले अँगुली दबा रहा
था। गजब की फुर्ती से वे अपने घोड़े को चलाते, मोड़ते और शत्रु पक्ष पर चोट कर रहे
थे। शत्रु पक्ष पर धीरे-धीरे सिक्ख सेना हावी हो रही थी। तभी सँध्या हो गई, रात्रि
का अन्धेरा चारों और फैल गया। अलिफ खाँ की सँयुक्त सेनाएँ काठबाड़ी के पीछे छिप गई।
गुरू जी तथा भीमचँद की सेनाएँ भी पीछे हट गई और अगले दिन प्रातः जोरदार आक्रमण की
योजना बनाने लगी। उधर सँयुक्त सेनाओं ने आज की करारी चोट का मजा पा लिया था, इसलिए
अगले दिन पुनः लड़ाई का उनका साहस नहीं रहा। धीरे-धीरे रात में ही वे सेनाएँ भाग खड़ी
हुई। प्रातःकाल जब गुरू जी की सेनाओं ने सत श्री अकाल का जयकारा बुलँद करके आक्रमण
की तैयारी की तो वहाँ शत्रु की अनुपस्थिति का पता चला। राजा भीमचँद ने अपनी विजय की
घोषणा कर दी। भीतर से वह डर रहा था कि अलिफ खाँ कुमुक लेकर आएगा और उसके राज्य की
नीवें हिला देगा। अतः उसने गुरू जी से परामर्श किये बिना ही कृपालचँद को सँधि का
सन्देश भिजवा दिया। गुरू जी को जब भीमचँद की इस कायरता का पता चला तो उन्हें दुख
हुआ और वे भी चुपचाप वापिस श्री आनंदपुर साहिब जी को चले आये।