38. भीमचँद ने मैत्री का प्रस्ताव भेजा
कहिलूर नरेश भीमचँद अब गुरू गोबिन्द सिंघ जी की शक्ति से भलीभान्ति परिचित हो गया
था। वह अब समझने लगा कि गुरू जी से मित्रता करने में ही उसके राज्य का कल्याण है,
क्योंकि गुरू जी किसी भी बाहरी आक्रमण के समय उसकी सहायता कर सकते हैं। यही विचार
करके भीमचँद ने गुरू जी को मैत्री का सन्देश अपने मँत्री देवीचँद द्वारा श्री
आनंदपुर साहिब भेजा। गुरू जी के दरबार में मँत्री का स्वागत हुआ। गुरू जी ने प्रकृति
से ही उदार थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे कोई राज्य की स्थापना नहीं करना चाहते।
यह तो राजा भीमचँद के मन का लोभ, भय और ईर्ष्या ही थी, जो शत्रुता का रूप धारण कर
गई। अन्यथा गुरू जी की और से किसी को भी प्रथम आघात नहीं पहुँचाया गया। अब भी यदि
भीमचँद शान्तिपूर्वक व मित्रतापूर्वक रहने का वचन दें तो गुरू जी उनके विरूद्ध सभी
अपराध क्षमा कर देंगे। गुरू जी ने मँत्री द्वारा नरेश भीमचँद को सँदेश भेजा कि सब
पर्वतीय नरेश विधर्मी औरँगजेब से क्यों डरते हैं ? उसको हजारों रूपया कर देते हो और
उसी को प्रसन्न करने के लिए आपस में लड़ते रहते हो ? हमने उसी विधर्मी के अन्याय और
अत्याचार के विरूद्ध तलवार उठाने का कार्यक्रम बनाया है। अतः पर्वतीय नरेशों को
पारस्परिक वैर-विरोध भुलाकर सँगठित होना चाहिए और जो कर के रूप में राशि औरँगजेब के
राज्यपालों को देते हैं, उसी से अपने राज्य की प्रगति करनी चाहिए। गुरू जी की इस
सदप्रेरणा का बड़ा अनुकूल प्रभाव भीमचँद पर पड़ा। उसने वचन दिया कि वह अब से मुगलों
को कर नहीं देगा। अपने प्रभाव में रहने वाले अन्य नरेशों से भी वह कर न देने को
कहेगा। इस प्रकार राजा भीमँचद और गुरू जी में मतभेद समाप्त हो गया और दोनों पक्षों
में मित्रता स्थापित हो गई।