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20. भीमचन्द की दुविधा

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के कार्यक्षेत्र में बहुत कठिनाइयाँ थीं। वह उस समय बचपन को पीछे छोड़कर यौवन में पर्दापण कर रहे थे। गुरूगद्दी पर विराजमान होने के कारण उनके अपने ही कई संबंधी उनसे ईर्ष्या और विरोध रखते थे। सिक्खों को तत्कालीन सरकार सँदेह की दृष्टि से देखती थी किन्तु गुरू गोबिन्द सिंघ जी को ऐसा विशाल दिल प्राप्त हुआ था जो सारे कष्टों, कलेशों तथा कठिनाइयों को तुच्छ समझता था। अतः वह नित्य प्रति अभ्यास करते, बल्कि सिक्खों को भी इसी में सदैव व्यस्त रखते। उनका अधिकतर समय शूरवीरों की गाथाएँ गाने और सुनने, शिकार खेलने, धनुष बाण के लक्ष्य भेदने, घुड़दौड़ इत्यादि ऐसे ही अन्य अनके कार्यों में व्यतीत होता। धर्म युद्ध की तैयारी में गुरू जी पूर्णतः व्यस्त रहने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपना सैन्य बल बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर दिया। अतः उन्होंने समस्त सिक्खों को आदेश दिया कि वह प्रत्येक परिवार से एक बेटा गुरू जी सेना में अवश्य भर्ती करवायें। उन दिनों सिक्ख युवक किशोर अवस्था में ही शस्त्र विद्या सीखते थे जिस कारण उनके दिल में एक अच्छे सैनिक बनने की उत्सुकता बनी रहती थी। इसलिए गुरू जी को स्वस्थ युवकों की कमी कभी आड़े नहीं आई। गुरू जी अवकाश के समय कुछ सुयोग्य योद्धाओं को अपने साथ शिकार पर ले जाते। शिकार की खोज में कभी-कभी दूर कहिलूर नगर के निकट पहुँच जाते और वहाँ नगाड़े जोरों से बजाते जिसे सुनकर राजा भीमचन्द विचलित हो गया। उसने नगाड़े की ध्वनि को अपने लिए चुनौती के रूप में लिया और मँत्रियों की सभा बुलाकर परामर्श लिया। इस पर पुरोहित परमानँद (पम्मा) ने समय का लाभ उठाते हुए राजा भीमचँद को मनोकल्तिप शँकाएं व्यक्त कर-करके भयभीत करना प्रारम्भ कर दिया। उसने कहा: गुरू जी की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति कभी भी हमारे लिए खतरा बन सकती है क्योंकि सम्राट औरँगजेब के ये लोग शत्रु हैं। अतः वह हमें इसका उत्तरदायी मानेगा क्योंकि श्री आनंदपुर साहिब हमारा भू-भाग है। परन्तु इसके विपरीत महामँत्री देवीचन्द ने कहा: कि श्री गुरू गोबिन्द सिघ जी श्री गुरू नानक देव जी की उत्तराधिकारी हैं जो कि देश-विदेश में पूज्य हैं। अभी 10 वर्ष पूर्व ही इनके पिता श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी ने मानवता का पक्ष लेकर तिलक और जनेऊ की खातिर अपने प्राणों की आहुति दी है। यह सभी तैयारियाँ आत्मनिर्भर बनने के लिए हैं न कि किसी पर आक्रमण करने के लिए, इसलिए हमें चिन्तित होने की कोई आवश्यकता नहीं। फिर वह हमारे शत्रु क्यों बनेगे ? इसका मुझे कोई कारण दिखाई नहीं देता। ऐसा हो सकता है कि हम उनसे विपत्तिकाल मैं सैनिक सहायता ले। उनका हमारी भूमि पर होना, हमारे लिए हितकर है। हम इस प्रकार सबल ही हुए हैं। वैसे भी उनके पूर्वजों के आपके पूर्वजों पर बहुत बड़े उपकार है। आपके दादा ताराचन्द जी को भी सम्राट जहाँगीर ने ग्वालियर के किले में अन्य 52 राजाओं के साथ कारावास में बन्दी बना रखा था जिनको श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दादा श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने स्वतन्त्रता दिलवाई थी। राजा भीमचन्द को मँत्री देवीचन्द के सभी तर्कों में सत्य प्रतीत हुआ। वह कह उठा: कि मैं उनके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ, आप जाकर भेंट वार्ता का समय व तिथि निश्चित करें। पुरोहित परमानँद तथा महामँत्री देवीचँद कहिलूर से राजा भीमचँद के दूत बनकर गुरू जी के दर्शनों को आये और उन्होंने सभी प्रकार से श्री आनंदपुर साहिब जी का निरीक्षण किया। देवीचन्द ने गुरू जी के समक्ष भीमचन्द के लिए भेंट वार्ता का समय निश्चित करने का आग्रह किया। गुरू जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन्हें आने का निमँत्रण और एक विशेष तिथी निश्चित कर ली गई। राजा भीमचन्द विशेष तैयारी करके गुरू दरबार में उपस्थित हुआ। उसने गुरू जी के समक्ष शीश झुकाकर प्रणाम किया और बहुत से बहुमूल्य उपहार भेंट किये। गुरू जी से उसकी यह प्रथम भेंट थी। वह गुरू जी के यौवन और तेजोमय आभा से बहुत प्रभावति हुआ। गुरू जी ने भी उसका भव्य स्वागत किया और उसके स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं रखी। यहाँ तक कि, उसे उसी तम्बू में ठहराया गया जो काबुल की संगत दुनीचन्द द्वारा भेंट किया गया था और उसे अपने श्रद्धालूओं की और से प्रस्तुत की गई अन्य भेंट सामाग्री भी दिखाई। जिसमें एक श्वेत मस्तक वाला बड़ा सधा हुआ हाथी, सुनहरे साज-सामान से सजे हुए पांच घोड़े, एक हथियार जो पाँच शस्त्रों का अलग-अलग रूप धारण कर सकता था जिसका नाम पँचकला शस्त्र था। एक तख्त जिसमें से बटन दबाने पर पुतलियाँ निकलकर चौपड़ खेल सकती थीं। यह सब शाही ठाठ-बाठ देखकर राजा भीमचंद हक्का-बक्का रह गया और मन ही मन जल उठा। उसके मुँह में पानी भर आया और अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या की ज्वाला में जल उठा कि ऐसी अनुपम वस्तुएँ गुरू जी के पास हैं, जो हम राजाओं अथवा मुगल सम्राट को भी नसीब नहीं। वह मन ही मन इन अनमोल वस्तुओं को प्राप्त करने की युक्ति पर विचार करने लगा। यह तो वह जान गया था कि बलपूर्वक यह वस्तुएँ प्राप्त नहीं की जा सकती। क्योंकि गुरू जी के पास भी विशाल सैन्यबल है। अतः उसने इन वस्तुओं को छल से प्राप्त करने का मन बना लिया। रात्रि में उसे नींद नहीं आई वह उस श्वेत अदभुत प्रसादी हाथी को स्वप्न में ही देखता रहा जो उसने स्वागत द्वार पर फुलों की वर्षा करते हुए देखा था। वास्तव में राजा भीमचन्द गुरू जी पर अपनी शान-शौकत दिखाने और अपनी सम्पन्नता की धाक बिठाने के लिए आया था किन्तु हुआ इसके विपरीत, वह अपनी समृद्धि भूल गया और अपने को तुच्छ समझने लगा, जिस कारण उसे हीनभावना का अहसास होने लगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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