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2. बाल्यकाल

श्री गुरू नानक देव जी अपने पहले प्रचार दौरे के अर्न्तगत पटना साहिब नगर में आये थे और उन्होंने सालसराय जौहरी को पटना साहिब क्षेत्र का प्रचारक नियुक्त किया था। सालसराय ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अपनी हवेली को धर्मशाला में परिवर्तित कर दिया जिसमें प्रतिदिन सतसँग होने लगा। उसी हवेली में श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पुत्र का जन्म हुआ है। यह समाचार जँगल की आग की तरह चारों और पटना साहिब नगर में फैल गया। नगरवासी, दादी माँ नानकी जी तथा मामा कृपालचँद जी को बधाइयाँ देने उमड़ पडे। माता गुजरी जी अति प्रसन्न थीं अतः उनका सँकेत पाते ही सिक्खों ने खूब मिठाइयाँ बाँटी और सभी अभ्यागतों को दान दिया। तदोपरान्त एक विशेष सेवक को एक पत्र देकर गुरू जी को सन्देश देने हेतु आसाम भेज दिया कि उनके यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया है। उत्तर में गुरू जी ने सन्देश भेजा कि बालक का नाम गोबिन्द राय रखा जाये और उसके पालनपोषण पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया जाये क्योंकि उन्हें लौटने में देरी हो सकती है। लगभग ढाई वर्ष पश्चात गुरू जी ने आसाम-बँगाल से लौट आये और उन्होंने पहली बार अपने बालक गोबिन्द राय को अपने आलिँगन ले लिया और प्रभु का धन्यवाद किया। गुरू जी कुछ दिन पटना साहिब में ठहरे रहे परन्तु जल्दी ही पँजाब लौट गये क्योंकि वे पँजाब में माखोवाल नामक क्षेत्र में एक नया नगर बसाने का कार्य प्रारम्भ कर चुके थे जिसे सम्पूर्ण करना था। वापिस जाते समय सेवकों और मामा कृपालचन्द जी को आदेश दे गये थे कि वह वहाँ पर पटना साहिब में बाल गोबिन्द और परिवार की देखभाल करें, उपयुक्त समय आने पर वे स्वयँ उन सभी को पँजाब बुला लेंगे। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के सुपुत्र के जन्म स्थल, सालस राय की हवेली को स्थानीय संगत ने एक भव्य भवन में परिवर्तित कर दिया। धीरे-धीरे बाल गोबिन्द का विकास हुआ और वे अपनी आयु के बच्चों के साथ खेलने लगे। किन्तु तीन-चार वर्ष की आयु के बच्चों के साथ गोबिन्द राय अनोखे खेल ही खेलते। वे अधिकाँश नदी के किनारे रेत में मैदान में खेलना पसन्द करते। वे वहाँ पर बच्चों की टोलियाँ बनाकर मल्ल युद्ध करते अथवा एक दूसरे को पराजित करके युद्ध का अभ्यास करते, इस प्रकार गोबिन्द राय सदैव नायक की भुमिका में होते बाकी बच्चे उनके आदेश अनुसार कार्यरत रहते। यूँ तो बालक सभी चँचल-चपल होते हैं परन्तु गोबिन्द राय जी की बाल-सुलभ शरारतें अनोशी थी। इनकी सभी क्रिड़ाओं में कोई न कोई रहस्य अवश्य ही छिपा रहता था। वहीं मुहल्ले में एक कुँआ था। उसका पानी मीठा और स्वादिष्ट होने के कारण दूर-दूर से स्त्रियाँ पानी भरने आती थीं। गोबिन्द राय जब बालको के साथ खेलने निकलते थे तो वे अधिकाँश समय बाग-बगीचों में फल-फूल तोड़ने में व्यस्त रहते। फलों का ऊँचे पेड़ों पर होना उनके लिए समस्या होती। इस कार्य को सहज में सुलझा लेने के लिए बच्चों ने मिलकर गुलेल का निर्माण करके निशाना लगाने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। फिर क्या था बच्चों को नई-नई शरारतें सूझतीं वे आपस में शर्तें लगाते कि किसका निशाना अचूक है बस इसी बीच उन्होंने पनघट की स्त्रियों के घड़ों को निशाना बना डाला। घड़ा फूट गया। वे स्त्रियाँ बिगड़ गई और लगी गालियाँ देने। बच्चों को उनकी गालियों में आनन्द आने लगा। इस तरह वे चँचल हो गये। जैसे ही स्त्रियाँ पानी भरकर घरों को लौटतीं, तब बच्चे छिपकर गुलेल से उनके घड़ों को निशाना बना देते, जिससे घड़े में छिद्र हो जाता और पानी की धारा बह निकलती, जिसे देखकर बच्चे खूब खुश होकर नाचने लगते। इस पर पनिहारने छटपटाती और बच्चों का पीछा करतीं परन्तु बच्चे भाग जाते, इस प्रकार यह छुपा-छुपी का खेल चलता रहता। एक दिन उन स्त्रियों ने माता गुजरी जी तथा दादी माँ नानकी जी को शिकायत कर दी कि उनका बेटा गोबिन्द राय बच्चों के साथ मिलकर उनके घड़े फोड़ देता है इस पर माता जी ने उन पनिहारिन स्त्रियों को साँत्वना देते हुए पीतल की गागर लाकर दे दी किन्तु गोबिन्द राय जी को तो निशाना लगाने और पनिहारिनों को सताने में आनन्द मिलता था। वे धनुष-बाण बनाकर ले आये थे और छिपकर पीतल की गागरों में निशाना साधने लगे थे। गोबिन्द राय का निशाना बाकी बच्चों की अपेक्षा अचूक होता जिससे पीतल की गागारों में छिद्र हो जाते और पानी की धारा प्रवाहित हो जाती। पनिहारने फिर मिलकर माता जी को शिकायत करने आई कि उनका लाल बहुत नटखट है मानता ही नहीं और उन्हें सताने में उसे आनन्द मिलता है। माता जी तथा दादी माँ ने बालक गोबिन्द राय को खूब समझाया कि पनिहारिनों को सताना ठीक नहीं, तो उत्तर में गोबिन्द राय कहते? कि व तो उनकी गागरें नही छेदना चाहते परन्तु वे ही उन्हें चिढ़ाती हैं और कहती हैं कि ले फोड़ ले घड़ा, उन्हें तो पीतल की गागर मिलेगी। एक दिन एक श्रद्धालू ने एक स्वर्ण के कँगनों का जोड़ा बालक गोबिन्द राय के लिए दादी माँ नानकी जी को भेंट में दिया जो उसी समय पहिना दिये गये। इसके पश्चात एक दिन गोबिन्द राय जी ने अन्य बालकों के हाथों में कँगन न पाकर स्वयँ के कँगनों को व्यर्थ जाना और गँगा किनारे खेलने चले गये। खेलते-खेलते सभी बच्चे गँगा में पत्थर-कँकर आदि जोर से फेंकने लगे। तब गाबिन्द राय जी ने अपने हाथों का एक कँगन उतारकर जोर से गँगा में फेंक दिया। घर लौटने पर माता गुजरी जी तथा दादी माँ नानकी जी ने उनके हाथ का एक कँगन न पाकर प्रश्न किया? बेटा कँगन कहां है ? इस पर गोबिन्द राय जी ने सहज में उत्तर दिया? गँगा घाट पर शक्ति परीक्षण में कँगन से निशाना साधा था। तब माता जी उनसे रूष्ट हुई परन्तु उनके अनोखे अन्दाज को देखकर आत्मविभोर होने लगी और दुबारा पूछा, वह स्थान बता सकते हो जहां तुमने कँगन फेंका था, इस पर गोबिन्द राय जी कहने लगे, हाँ ! क्यों नहीं मेरे साथ अभी चलो, अभी बता देता हूँ। इस पर माता जी ने अपने साथ गोताखोर लिये और गँगा घाट पर पहुँचे। जब गोताखोर पानी में उतरे तो गोबिन्द राय जी ने दूसरा कँगन हाथ से उतारकर माता जी को दिखाया और उसे पूरी शक्ति के साथ पानी में वहीं फेंका जहाँ पहला कँगन फेंका था और बोले, देखो ! माता जी मैंने कँगन वहाँ फेंका था। यह चँचलता देखकर माता जी मुस्करा दी और गोताखोरों को वापिस बुला लिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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