5. जुलाहा दाउद (दादू नगर, सिंध)
श्री गुरू नानक देव जी सख्खर नगर से सिंधु नदी के साथ-साथ चलते
दादू नगर में पहुँचे। उन दिनों यह नगर अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण विकसित था।
क्योंकि वहाँ पर व्यापारियों तथा हज यात्रियों का आवागमन बना रहता था। गुरुदेव जी,
नगर के बाहर उस स्थान पर ठहर गए जहां से हज-यात्री पैदल यात्रा के लिए ईरान देश की
ओर रुख करते थे। अपने नियम अनुसार आप जी नित्य कीर्तन करते रहते। वहाँ के स्थानीय
निवासी भी कीर्तन की वर्षा का आँनद लेने पहुँच जाते तथा प्रवचन सुनकर घर लौट जाते।
श्रद्धालुओं में दाउद नाम का एक जुलाहा था, जो गुरुदेव के प्रवचन सुनकर उनमें अथाह
श्रद्धा-भक्ति रखने लगा था। गुरुदेव के लिए उसने कड़े परीश्रम से एक सुन्दर गलीचा
बुना, क्योंकि गुरुदेव को वह सदैव घास पर ही बैठे देखता था। गलीचा तैयार करके उसने
बहुत श्रद्धा के साथ भेंट किया और विनती की, हे गुरुदेव ! आप इस गलीचे पर आसन लगाएं।
उसकी श्रद्धा-भक्ति देखकर गुरुदेव ने उसको कंठ से लगाया और स्नेह पूर्वक कहा, तेरा
गलीचा हमें स्वीकार है परन्तु हम इसका क्या करेंगे ? क्योंकि हम रमते फ़कीर हैं हमारा
गलीचा यही हरी घास ही है। अतः वह जो सामने कुत्तिया के बच्चे पैदा हुए हैं, आप उनको
उसके उपर नीचे डाल दो। क्योंकि वह नवजात शिशु सर्दी के मारे काँप रहे हैं। इस समय
उनको गलीचे की अति आवश्यकता है। दाउद ने आज्ञा का पालन करते हुए तुरन्त ऐसा ही किया।
गुरुदेव की प्रसन्नता का पात्र बनकर वह घर लौट गया।