14. पशुबलि पर आक्रोश (जोहड़सर, हिमाचल
प्रदेश)
श्री गुरू नानक देव जी सपाटू से अन्य यात्रियों के साथ जोहड़सर
पहुँचे। वहाँ पर उन दिनों वार्षिक उत्सव था। अतः बड़ी धूमधाम से मेले की तैयारियां
हो रही थी। दूर-दूर से व्यापारी वस्तुओं का आदान-प्रदान करने पहुँच रहे थे। वहाँ के
मुख्य मन्दिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों को नवीनतम रूप दिया जा रहा था। मन्दिर
के प्राँगण मे देवी पूजा के लिए विशेष नर्तक, नृत्य का अभ्यास कर रहे थे। समारोह के
प्रारम्भ होने पर नर्तकों ने अपने विशेष नृत्य का प्रदर्शन किया। जिसमें देवी मूर्ति
को दण्डवत प्रणाम करते हुए हर्ष-उल्हास के गीत गाते हुए, देवी को दर्शन देने के लिए
आभार व्यक्त कर रहे थे। इस प्रकार वे नर्तक देवी के प्रति श्रद्धा का प्रदर्शन कर
रहे थे। इस आडम्बर को देखकर गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को रबाब सुर में लाने को कहा
और स्वयँ कीर्तन करने में लग गये:
भउ फेरी होवै मन चीति ।। बहदिआ उठदिआ नीता नीति ।।
लेटणि लेटि जाणै तनु सुआहु ।। इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ।। 3 ।।
राग आसा, अंग 350
पुजारियों ने समझा कि वे साधु जन हैं और वे अपनी श्रद्धा गाकर
व्यक्त करेंगे। परन्तु गुरुदेव ने तो नृत्य का खण्डन आरम्भ कर दिया और अपनी बाणी
में कहा, वास्तविक नृत्य तो प्रभु की बढ़ाई करना ही है बाकी सब मन को बहलाने के लिए
मनोरँजन मात्र ही है। प्रभु प्रेम मे समर्पित हो जाना ही वास्तविक नृत्य है। उस
प्रभु की याद हृदय मे सदैव टिकाकर रखना ही देवी के फेरे लगाना है। अपने शरीर के अँह
का त्याग करना ही प्रभु चरणों में दण्डवत प्रणाम करना है। देवी देवताओं को प्रसन्न
करने के लिए जब बकरों की बलि होने लगी तो गुरुदेव ने आपत्ति की और कहा:
जड़ पाहन के मानै पीव ।। तिस के आगै मारै जीव ।।
जानत नहीं साकत अंधे ।। जन्म साखी
अर्थ: हे आस्तिक कहलाने वाले अंधे ! तुझे इतना भी दिखाई नहीं
देता कि इस निर्जीव पत्थर की मूर्ति के लिए जीवों का वध करता है। क्या तुझे इनमें
प्रभु के अंश के दर्शन नहीं होते ? वास्तव में तू आस्तिक नहीं नास्तिक है। इस पर सभी
पुजारी वर्ग गुरुदेव से ज्ञान गोष्ठी करने लगे। गुरुदेव ने तब कहा, अपना कल्याण
चाहते हो तो निराकार प्रभु की स्तुति सतसँग मण्डल बनाकर प्रतिदिन किया करो। इसके
अतिरिक्त निष्काम सेवा ही परमार्थ का रास्ता है।