68. पिता पुत्र में सैद्धाँतिक मतभेद
(तलवण्डी नगर, पँजाब)
श्री गुरू नानक देव जी सुलतानपरपुर से तलवण्डी पहुँचे। आप जी
नगर के बाहर एक निर्जन स्थान पर विश्राम करने लगे। परन्तु भाई मरदाना जी आपकी आज्ञा
पाकर अपने घर-परिवार को मिलने पहुँचे। भाई मरदाना जी के लौटने का समाचार जैसे ही
माता तृप्ता जी को मिला, वह नानक जी की खोज में निकल पड़ीं और जल्दी ही उन्होंने
नानक जी को खोज लिया। गुरुदेव ने चरण बन्दना की। माता जी ने उनको कँठ से लगाते हुए
आग्रह किया कि उनके साथ घर पर चलो। माता जी का ममता भरा आग्रह इतना भावुक था कि
गुरुदेव इन्कार नहीं कर पाये अतः वे माता जी के साथ घर पहुँचे। पिता कालू जी तथा
गुरुदेव जी के बडे बेटे श्रीचँद से भेंट हुई, जो कि उन दिनों अपने दादा जी के पास
रह रहे थे। पिता कालू जी ने नानक जी को इस बार कँठ से लगाकर स्नेह पूर्ण कहा, बेटा
अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ अतः तुम मेरे पास रहो। गुरुदेव ने उत्तर में कहा, मेरे
स्थान पर आपका पोता आपके पास है। यह सुनकर मेहता कालू जी ने कहा, वह तो ठीक है
परन्तु यह तो तेरे से भी दो कदम आगे बढ़ गया है। इसका कहना है कि मैं आजीवन अविवाहित
रहूँगा। इस पर गुरुदेव ने श्रीचँद जी को अपने पास बिठाकर बहुत स्नेह पूर्वक जीवन का
वास्तविक लक्ष्य बताते हुए कहा, प्रकृति के नियमों के अर्न्तगत जीवन बहुत सहज तथा
सरल हो जाता है तथा प्राप्तियाँ भी अधिक होती हैं। इसके विपरीत ब्रह्मचर्य का पालन
करना कठिन ही नहीं असम्भव भी होता है। इसलिए कोई भी कदम उठाने से पहले अपने हृदय को
दृढता से जाँचो कि कहीं समय आने पर विचलित तो नहीं हो जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो कहीं
के नहीं रहोगे अर्थात दीन-दुनियाँ दोनों खो दोगे। श्रीचँद जी उत्तर में कहने लगे,
पिता जी आप चिन्ता न करें मैंने अपने मन को साध लिया है। वह कभी भी विचलित नहीं हो
सकता इसलिए मैंने आजीवन जति रहने की कड़ी प्रतिज्ञा ले ली है। परन्तु इस उत्तर से
गुरुदेव प्रसन्न नहीं हुए और उन्होंने कहा, तुम्हें इस प्रकार की प्रतिज्ञा लेने से
पहले मेरे लौटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी।
सचि सिमरिए होवै परगासु ।। ता ते बिखिआ महि रहै उदासु ।।
सतिगुर की ऐसी वडिआई ।। पुत्र कलत्र विचे गति पाई ।। राग धनासरी, अंग 661
अर्थः परमात्मा का नाम जपने वाले में एक ऐसा प्रकाश हो जाता है,
जिससे वो माया के प्रभाव से दूर हो जाता है यानि माया से उदास हो जाता है। गुरू की
ऐसी महिमा होती है कि उसकी किरपा से परिवार में रहते हुए भी इन्सान मुक्ति पा लेता
है। अब हमारे बीच सदैव सैद्धाँतिक मतभेद उत्पन्न हो गया है। पिता जी के रोष को देखते
हुए श्रीचँद जी ने उनसे क्षमा याचना की और कहा, मुझसे भूल हुई है परन्तु अब क्या
किया जा सकता है। कृपया मुझे अर्शीवाद दें कि मेरी प्रतिज्ञा भँग न हो। उत्तर में
गुरुदेव ने कहा, ठीक है, मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा के सामने रुकावट नहीं बनता किन्तु
इतनी कड़ी साधना करने पर भी प्राप्ति गृहस्थियों से कम ही होंगी। इस विचारविमर्श के
पश्चात् माता तृप्ता जी तथा पिता कालू जी कहने लगे, ठीक है यदि यह विवाह नहीं करता
तो छोटे लड़के लक्खमीदास की तैयारी करो। गुरुदेव ने उत्तर दिया, ठीक है मैं उसके
ननिहाल पक्खो के रँधवे जाऊँगा और इस शुभ कार्य का प्रारम्भ करूँगा। तभी राय बुलार
साहब का सँदेश आ पहुँचा कि नानक जी से कहो कि वे उनसे मिलने आएँ। गुरुदेव जी सँदेश
पाकर उनके यहाँ पहुँचे। नानक जी का आना सुनकर राय जी पलँग से उठे, परन्तु वृद्ध
अवस्था के कारण उठ नहीं पाये। अतः लुढ़क गए जिससे गुरुदेव ने उन्हें थाम लिया। वह
वैराग में रूदन करने लगे कि गुरुदेव जी बहुत लम्बे समय पश्चात् ही लौटते हैं। मैं
अब मृत्यु शैया पर पड़ा हूँ मेरी बस यही एक अभिलाषा शेष थी कि आप के दीदार करके शरीर
त्याग सकूँ। बस यह इच्छा भी पूर्ण हुई। अतः अब मैं खुशी-खुशी, इस सँसार से विदा होने
को तैयार हूँ। गुरुदेव ने उन्हें धैर्य बन्धाया और कहा, सब कुछ उस मालिक के हुक्म
से ठीक ही हो रहा है। इस प्रकार गुरुदेव कुछ दिन अपने माता-पिता के पास तलवण्डी में
रहे तथा भाई मरदाना जी को साथ लेकर कीर्तन करके वहाँ की संगत को हरियश से कृतार्थ
करते रहे और फिर सबसे विदा लेकर आप अपने ससुराल पक्खो के रँधवे परिवार से मिलने चले
गए।