41. ज्ञान और श्रद्धा दोनों अनिवार्य
(मदुरै नगर, तामिलनाडू)
श्री गुरू नानक देव जी रामेश्वर से जिस मुख्य भूमि पर पधारे। उस
नगर का नाम रामनाथपुरम है। इस क्षेत्र में अनेक शिव मन्दिर हैं। उन दिनों भी
स्थानीय लोग शिव उपासना में ही विश्वास रखते थे। अतः वहाँ के कुछ शिव उपासक समुहिक
रूप में उतरी भारत की तीर्थ यात्रा करते समय ऋषिकेश तथा जोशीमठ इत्यादि स्थानों पर
मछँदरनाथ के शिष्य गोरखनाथ के सम्पर्क में आ गए थे। वहाँ पर उन्होंने गोरखनाथ को
गुरू धारण करके गुरू दीक्षा प्राप्त की और सन्यासी रूप धारण करके वापस मदुरै के
निकट तिलगँजी नामक स्थान में एक मठ बनाकर उसका सँचालन करने लगे। उन लोगों का मुखिया
मँगलनाथ, सिद्धि प्राप्त व्यक्ति था, जो कि जनसाधारण को तान्त्रिक शक्तियों से
भयभीत करके उनसे धन अर्जित करता रहता था। अधिकाँश लोग उसके वरदान तथा श्रापों से
सहमे रहते थे। उसकी भेंट गुरुदेव से हो गई। हुआ ऐसे कि एक विशेष स्थान पर गुरुदेव
अपने प्रवचनों से जनसाधारण को निराकार उपासना की शिक्षा दे रहे थे और परमज्योति की
कीर्तन स्तुति कर रहे थे। मधुर सँगीत के प्रभाव से धीरे-धीरे प्रतिदिन विशाल रूप
में संगत एकत्र होने लगी। अतः गुरुदेव के दर्शनों को जो भी आता वह उनके विचारों का
विवेचन करने को विवश हो जाता। युक्ति तथा तर्कसंगत सिद्धाँत हर एक के हृदय पर गहरा
प्रभाव डालते। जिस कारण विवेकशील लोग निराकार की उपासना की ओर तुरन्त अग्रसर होकर
अपनी पुरानी साकार उपासना, मूर्ति पूजा की परिपाटी त्यागकर रोम-रोम मे रमे राम
अर्थात निराकार प्रभु की उपासना, गुरुदेव द्वारा दर्शायी विधि अनुसार प्रारम्भ कर
देते। इस विधि में साधसंगत को प्रधानता थी और प्रभु स्तुति के लिए कीर्तन द्वारा
हरियश करना तथा संगत की सेवा के लिए सामुहिक लँगर करना था। जिसके अनुसार बाँटकर खाना
सिक्ख मत का अनिवार्य अँग है। श्रद्धालु लोग दर्शन करते समय गुरुदेव को जो भी भेंट
करते, वे सामाग्री तथा धन इत्यादि लँगर के लिए भेज देते। अपने पास कुछ न रखते। लँगर
प्रथा को देखकर दूर-दूर से जनसमूह एकत्रित होने लगा जिस कारण स्थानीय योगियों के मठ
में श्रद्धालु न के बराबर रह गए।
इस प्रतिक्रिया को देखकर नाथ पँथियों को चिंता हुई वे भी
गुरुदेव से अपना लोहा मनवाने के लिए ज्ञान-गोष्ठी करने आए। गुरुदेव ने उन्हें बहुत
आदर मान से बिठाकर संगत में ज्ञान चर्चा प्रारम्भ की। मठ का मुखिया मँगलनाथ कहने लगा:
आप तो "साँसारिक" व्यक्ति हैं जबकि हम गृहस्थ त्यागी हैं। अतः जनता को ज्ञान उपदेश
देकर त्यागी बनाना हमारा कार्यक्षेत्र है। इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा: त्याग तो
मन का होता है, किन्तु आपने शरीर से ही गृहस्थ त्याग दिया है जबकि आपका मन साधारण
गृहस्थियों की तरह माया, तृष्णा, मोह ममता इत्यादि वासनाओं में ग्रस्त है। अतः आपका
त्याग कोई त्याग नहीं केवल एक ढोंग है जो कि केवल उदर पूर्ति का साधन मात्र है।
सत्य तो यह है, न तो आप योगी हैं न सँसारी क्योंकि जो शिक्षा आप जनता को देते हैं
उस पर स्वयँ अपना जीवन नहीं जीते। अतः आप की करनी कथनी में अन्तर है। यह कड़वा सत्य
सुनकर योगी मँगलनाथ ने गुरुदेव जी पर प्रश्न किया: आप अपने मन पर किस विधि द्वारा
नियंत्रण करते हैं ? इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा: हम ‘शब्द गुरू’ की कमाई करते
हैं अर्थात गुरू उपदेशों पर जीवन व्यापन करने का निरँतर प्रयास करते रहते हैं। गुरू
ज्ञान ही मन को विकारों से मुक्त रखता है, इसके लिए हठ योग की कोई आवश्यकता नहीं।
यथार्थ यह है कि आत्मिक अभ्यासी, जिज्ञासु एक ऐसा पक्षी है जो दो पँखों की सहायता
से ही उड़ सकता है। एक पँख प्रेम का है तथा दूसरा पँख ज्ञान का, इन दो पँखों को आधार
बनाकर कोई भी जिज्ञासु गृहस्थ में रहते हुए सहज योग द्वारा साधना करके मन पर विजय
प्राप्त करके प्रभु में अभेदता प्राप्त कर सकता है। इस कार्य के साधन रूप में केवल
सतसँग तथा सेवा की आवश्यकता पड़ती है। हमने सेवा की विधि सिखाने के लिए लँगर प्रथा
चलाई है, जिससे जिज्ञासु तन-मन-धन इत्यादि सभी प्रकार से अपना योगदान करके निष्काम
सेवा कर सकता है।