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9. श्री आनन्दपुर साहिब जी की आधारशिला रखना

बाबा बकाला नगर में श्री गुरूतेग बहादर जी को गुरूधामों की यात्रा कर आये लगभग दो माह हो गये थे, तभी उन्हें कीरतपुर साहिब से माता किशन कौर जी गुरु ( हरिकृष्ण जी की माता जी) का सन्देश प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होंने आपसे आग्रह किया था कि वे कीरतपुर पधारें और वही कहीं पुनर्वास का प्रबन्ध करें। अब आपने अपना समस्त जीवन सिक्ख पँथ को समर्पित कर दिया था। अतः सभी को आपके नेतृत्त्व में पूर्ण आस्था थी और आप भी सबके सुख दुखः के सच्चे साथी बन गये थे। जैसे ही आपको निमन्त्रण प्राप्त हुआ। आपने प्रस्तावित स्थल की खोज के विचार से अथवा उचित प्रचार केन्द्र की स्थापना की योजना के अन्तर्गत बाबा बकाला नगर को अलविदा कहकर श्री कीरतपुर साहिब प्रस्थान कर गये। रास्ते में व्यास नदी के किनारे आपने देखा कि कहार एक पालकी उठाए साथ में ला रहे हैं। आपने सेवकों से पूछा कि पालकी में कौन है ? उत्तर में आपको बताया गया कि वह ‘आदि ग्रन्थ साहब की बीड़’ है, जो कि श्री धीरमल जी से बलपूर्वक प्राप्त कर ली गई थी। यह जानते ही आपने बहुत नाराज़गी प्रकट की और कहा– वे बलपर्वूक प्राप्त की गई ‘आदि ग्रन्थ साहब’ की बीड़ भी नहीं रखना चाहते, जबकि उस पर उनका अधिकार बनता है। आप जी ने श्री आदिग्रन्थ साहिब जी वाली पालकी एक मल्लाह को सौंप दी और कहा कि यह ग्रँथ श्री धीरमल की अमानत है, वे उसे सन्देश भेज रहे हैं, वह आकर इसे तुम्हारे से प्राप्त कर लेगा। गुरूदेव जी ने श्री धीरमल जी को एक राही के हाथ सन्देश भेजा कि वे अपनी धरोहर मल्लाह से प्राप्त कर ले। श्री गुरू तेग बहादुर साहब जी का कीरतपुर साहिब में माता किशन कौर जी व आपके बड़े भाई बाबा सूरज मल जी के पुत्रों भाई दीपचन्द, भाई गुलाब राय तथा भाई श्याम चन्द जी ने मिलकर भव्य स्वागत किया। गुरूदेव जी ने वहाँ की संगत को अपने प्रवचनों से कृतार्थ किया। कुछ दिनों के पश्चात् आपने अपने मुख्य उद्देश्य पर ध्यान केन्द्रित किया और किसी उचित स्थल की खोज में निकल पड़े। आप चाहते थे कि भविष्य में होने वाली राजनैतिक उथलपुथल को मद्देनजर रखकर सिक्ख समुदाय को एक सुदृढ़ केन्द्र मिले जो सामरिक दृष्टि से भी उत्तम हो, जहाँ शत्रृ का हाथ न पहुँच सके क्योंकि उन्होंने किशोर अवस्था में एक युद्ध स्वयँ लड़ा भी था और कुछ युद्ध बाल्यकाल में अपनी आँखों से देखे भी थे। अतः वे चाहते थे कि पिछले कड़वे अनुभवों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर समय रहते अपने आपको सुरक्षित करना अनिवार्य था, नहीं तो दुष्ट शक्तियाँ उन्हें नष्ट करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगीं। इस भावी योजना को क्रियान्वित करने के लिए आपने एक स्थान का चयन कर लिया, जो हर दृष्टि से उत्तम जान पड़ता था। उस स्थल के आसपास के क्षेत्र का नाम माखोवाल था, यह प्राकृतिक दृष्टि से पर्वतों की तलहटी में बसा एक सुन्दर गाँव था, जो कि नदियों नालों की आड़ में सुरक्षित दृष्टिगोचर हो रहा था। उन्हीं दिनों वहाँ के स्थानीय नरेश दीपचन्द का देहान्त हो गया। उसकी रानी चम्पा देवी ने गुरूदेव जी को अँत्येष्टि क्रिया पर आमँत्रित किया, तत्पश्चात् उसने गुरूदेव जी को उसी क्षेत्र में कहीं स्थाई निवास बनाने का आग्रह किया। इस पर गुरूदेव जी ने माखोवाल ग्राम और इसके आसपास के क्षेत्रों को खरीदने का प्रस्ताव रखा। रानी चम्पा देवी उस क्षेत्र को गुरूदेव जी को उपहार स्वरूप देने लगी, किन्तु गुरूदेव जी ने उसे कहा कि वे भूमि, बिना दाम दिये नहीं लेंगे। इस पर पाँच सौ रूपये लेकर उसने माखोवाल ग्राम का पट्टा गुरूदेव जी की माता नानकी जी के नाम कर दिया। आनन्दगढ़ का निर्माण माखोवाल ग्राम में शुरू होना था। यहाँ मधुमक्खी के छत्ते पाये जाते थे और वहाँ से शहद का निर्यात होता था, इसलिए उस ग्राम का नाम माखोवाल था। गुरूदेव जी ने इस स्थान को सामरिक दृष्टिकोण के सम्मुख खरीदा था, अतः उन्होंने आषाढ़ संवत 1728 तदानुसार सन् 1661 ईस्वी को वहाँ पर चक्क नानकी नामक नगर की आधारशिला श्री गुरूदित्ता जी से रखवाई। भाई गुरूदिता जी, बाबा बुड्ढ़ा जी के पौत्र थे। चक्क नानकी नगर का मानचित्र गुरूदेव जी ने स्वयँ तैयार किया और नगर के निर्माण के लिए कुछ कुशल कारीगर बुलाये गये। जैसे ही आसपास के क्षेत्र में मालूम हुआ कि गुरूदेव एक नये नगर का निर्माण कर रहे हैं, बहुत से श्रद्धालु निर्माण कार्य में सहयोग देने के लिए आ गये। वे लोग कार सेवा (बिना वेतन कार्य) में भाग लेने लगे। गुरु जी ने नगर के विकास के लिए कुछ दीर्घगामी योजनाएँ तैयार की, जिसके अन्तर्गत चक्क नानकी को एक व्यापारिक केन्द्र बनाने के लिए एक मँडी क्षेत्र निर्धारित किया और नगर की सुरक्षा के लिए एक किले की स्थापना प्रारम्भ कर दी। नगर के निर्माण कार्य को देखकर एक पीर सैयद मूसा रोपड़ी भ्रम में पड़ गया, उसने किले का निर्माण कर रहे कारीगरों से पूछा कि इन सभी भवनों के निर्माता कौन हैं ? जब उसे मालूम हुआ कि भवनों के निर्माता श्री गुरू नानक देव जी के नौंवे उत्तराधिकारी श्री गुरू तेग बहादुर जी हैं तो वह कहने लगा कि यह तो दुनियादार मालूम होते हैं। अध्यात्मिक दुनिया के राही साँसारिक झमेलों में नहीं पड़ते। कारीगरों ने यही टिप्पणी गुरूदेव जी को कह सुनाई। उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा– पीर जी से कहें कि वें उनसे सीधे विचार विनिमय करें, उत्तर मिल जाएगा। पीर सैयद मूसा रोपड़ी सन्देश पाते ही मिलने को आया और गुरूदेव जी से कहने लगा कि आपका हृदय किस प्रवृति में खो गया है ? विशाल भवन निर्माण करना, सँसार से मोहमाया को बढ़ाता है और प्रभु से दूरी उत्पन्न कर देता है। उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा– यह भवन इत्यादि अपने स्वार्थ के लिए नहीं हैं, यह तो साँसारिक लोगों के कल्याण के लिए हैं। माया उसे ही सताती है, जो इसको अपना मानता है। यदि इनका उपयोग परोपकार लिए हुआ तो कल्याण अवश्य ही होगा। उचित उत्तर पाकर पीर सैयद मूसा सन्तुष्ट होकर लौट गया। भाई मक्खनशाह को गुरूदेव की शरण में रहते समय हो गया था। उसने व्यवसाय की देखभाल के लिए गुरूदेव जी से आज्ञा माँगी। गुरूदेव जी ने उसे आशीर्वाद देकर विदा किया। लोगों को जैसे ही पता चला कि बाबा बकाले वाले श्री गुरू तेग बहादुर एक नया नगर चक्क नानकी नाम से निर्माण करवा रहे हैं तो आसपास के क्षेत्र में हर्ष की लहर दौड़ गई। श्रद्धालुजन हर रोज उनके निवास स्थान पर पहुँचने लगे। श्री गुरू तेगबहादुर साहब की अमृतवाणी सुनकर और उनका भव्य दर्शन पाकर लोग गदगद हो जाते और अपनी आय का दसमाँश यानि अपनी आय का दसवाँ भाग कार सेवा में भेंट के रूप में गुरू चरणों में अर्पित करके अपने को धन्य मान लेते। इस प्रकार गुरूदेव का स्नेह और परोपकार जनसाधारण में चर्चा का विषय बन गया। धीरे धीरे उनका नाम और यश चारों ओर बढ़ता चला गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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