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8. श्री अमृतसर साहिब जी के लिए प्रस्थान

दम्भी गुरूओं के भागने पर जैसे ही बकाला नगर की परिस्थितियाँ सामान्य हुई, मक्खनशाह ने श्री गुरू तेग बहादुर साहब जी से निवेदन किया– हे गुरूदेव ! मेरे साथ अमृतसर चलिए, मैं श्री दरबार साहब के दर्शन करना चाहता हूँ, आपका यदि सँग मिल जाये तो मेरी यह यात्रा सफल हो जाएगी। श्री गुरू तेग बहादुर साहब जी स्वयँ भी दरबार साहब के दर्शनों की अभिलाषा रखते थे, बहुत लम्बा समय हो गया था, उनको अमृतसर गये हुए, अतः उन्होंने मक्खनशाह का आग्रह सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार गुरूदेव अपने परिवार सहित अमृतसर के लिए चल पड़े, साथ में मक्खनशाह अपने शस्त्रबँध सुरक्षाकर्मियों के साथ चल पड़ा। उन दिनों श्री हरिमन्दिर साहिब, अमृतसर पर पँचमगुरू वँशज पृथीचन्द के पौत्र हरि जी ने नियन्त्रण किया हुआ था। श्री गुरू हरि गोबिन्द जी के करतारपुर से चले जाने के पश्चात् वहाँ गुरू हरिराय तथा गुरू हरिकृष्ण जी ने भी अमृतसर आकर कभी निवास नहीं किया था। अतः रिक्त स्थान पाकर मिहरबान तथा उनके पुत्र हरि जी इस स्थान के गद्दीदार प्रबन्धक बन बैठे थे। बाईस दम्भी गुरूओं में से एक गुरू, बकाला नगर में हरि जी भी थे। जैसे ही अमृतसर के स्थानीय मसँदों तथा हरि जी को गुरूदेव जी के आने की सूचना मिली। वे विचार करने लगा कि कहीं बकाला नगर की तरह उन्हें वहाँ से भी अन्य दम्भी गुरूओं की भान्ति निकालकर बाहर न कर दिया जाए। अतः उनके मन में यही भय बना रहा। जल्दी में, उन्हें कुछ सूझा नहीं, अपने बचाव के साधन ढूँढने के चक्कर में वे दरबार साहिब (श्री हरिमन्दिर साहब) को खाली करके चले गये। और दर्शनी डियोढ़ी वाले प्रवेश द्वार को ताला लगाकर कहीं छिप गये। जब श्री गुरू तेग बहादुर साहिब का काफिला परिक्रमा में पहुँचा तो उन्होंने पाया कि दरबार साहब के प्रवेश द्वार / दर्शनी डियोढ़ी पर ताला लगा हुआ है। ऐसी स्थिति को देखकर गुरूदेव हैरान रह गये। सबके लिए समान रूप से खुले रहने वाले हरिमन्दिर के दरवाजे को बन्द देखकर, उनका मन खिन्न हो गया।

वे तो अडोल व शान्त हृदय के स्वामी थे। उन्होंने बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा। वे तो केवल दर्शनों के लिए गये थे, न कि किसी स्थान पर कब्जा करने के विचार से गए थे। इस पर उन्होंने सहज भाव से हरिमन्दिर की परिक्रमा की और प्रभु चरणों का ध्यान करके प्रार्थना की, मस्तिष्क झुकाकर प्रणाम किया और लौट चले। वे थोड़ी दूर जाकर बेरी के एक वृक्ष के नीचे बैठ गये और मक्खनशाह की प्रतीक्षा करने लगे। मक्शनशाह का रथ रास्ते में क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसकी वह मरम्मत करवा रहा था और इसी कारण वह काफिले से बिछुड़ गया था। कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात्, जब मक्खन शाह नहीं आया तो आप जी वहाँ से उठकर अमृतसर नगर से बाहर आ गये। आपने वहाँ पर भी मक्खनशाह की प्रतीक्षा की किन्तु वह नहीं पहुँचा, तब आप जी फिर से आगे बढ़ते हुए वल्ला गाँव पहुँच गये। वहाँ आपने पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम किया। वहाँ की एक महिला, जो आपकी भक्त थी, ने आपको पहचान लिया, और उसने बहुत विनम्र भाव से आग्रह किया कि हे गुरूदेव ! कृपया वे उसके गृह पधारें और उसे सेवा का एक अवसर दें।

गुरूदेव जी ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। इस प्रकार गुरूदेव, उस महिला के अतिथि बन गये। उस महिला ने हृदय से आपकी सेवा की, तभी मक्खनशाह भी आपको खोजते हुए वहाँ पहुँच गया। मक्खनशाह ने गुरूदेव से बिछुड़ जाने के कारण क्षमा याचना की। इस पर गुरूदेव ने कहा– वे जानते थे कि यहाँ पर ईर्ष्यावश स्थानीय सेवादार (मसंद) अभद्र व्यवहार करेंगे। अतः वे यहाँ नहीं आना चाहते थे क्योंकि वे सोचते हैं कि उनको दरबार साहिब से बेदखल कर दिया जाएगा, किन्तु वे तो केवल दर्शनों की अभिलाषा लिए आये थे। इस समस्त घटनाक्रम पर मक्खनशाह ने टिप्पणी करते हुए कहा– आपने अपनी आँखों से देख लिया है, यहाँ क्या अनर्थ हो रहा था ? कृप्या इस पुण्य भूमि का उद्धार कीजिए और इन दुष्टों से इसे मुक्ति दिलवाइये। जिस प्रकार बाबा बकाला नगर में इन दम्भी, स्वघोषित गुरूओं ने स्वार्थसिद्धि के लिए जनसाधारण को गुमराह कर रखा था, ठीक इसी प्रकार यहाँ भी इन लोगों ने गद्दर मचा रखा है और मनमानी करते हैं। कृपया आप मुझे आज्ञा प्रदान करें, मैं इस पुनीत भूमि पर सच्चे पातशाह की पातशाही कायम देखना चाहता हूँ। श्री गुरू तेग बहादुर जी मक्खनशाह की भावनाओं को समझते थे। किन्तु उन्होंने कहा– मक्खनशाह मुझमें और इनमें क्या अन्तर रह जायेगा, यदि हम भी उसी प्रकार बलपूर्वक सम्पति को हथियाने लगे। मक्खनशाह ने गुरूदेव जी के तर्क को समझा और मन मारकर रह गया। जब अमृतसर की संगत को इस घटना का पता चला तो वे नौंवे श्री गुरू तेग बहादुर जी से क्षमा याचना माँगने, वल्ला गाँव पहुँचे। उन्होंने पुजारियों के अभद्र व्यवहार पर दुख प्रकट किया। उसमें अधिकाँश महिलाएँ थी।

आपने सभी को साँत्वना दी और कहा– विद्याता की यही इच्छा थी, तब माताओं ने आपसे आग्रह किया कि वे वापस चलें किन्तु वापस चलना उन्होंने स्वीकार नहीं किया। तदापि वे उनकी विनम्रता पर सन्तुष्ट थे। अतः उन्हें आशीष दी ‘माईयाँ रब रजाईयाँ’ अर्थात माताओं को भगवान ने सँसार को तृप्त करने के लिए ही उत्पन्न किया हैं। गुरू जी ने अन्य गुरूधामों की यात्राएँ कीं, अमृतसर की संगत ने पश्चाताप किया किन्तु गुरूदेव वापिस नहीं आये। वें तरनतारन नगर के लिए प्रस्थान कर गये। उन्होंने वहाँ पवित्र सरोवर में स्नान किया। स्थानीय कुष्ठ निवारण आश्रम में अपने हाथों से कुष्ठियों की सेवा की और उनके लिए आर्थिक सहायता प्रदान की। विश्व के सर्वप्रथम कुष्ठ आश्रम आपके दादा श्री गुरू अरजन देव जी ने स्थापित किया था। वहाँ से आप श्री गोइँदवाल साहिब पहुँचे। श्री गोइँदवाल साहिब में वहाँ के गुरू वँशज ने आप का भव्य स्वागत किया। आप जी कुछ दिन वहाँ ठहरे और अपने प्रवचनों से स्थानीय संगत को कृतार्थ किया। वहाँ पर आपकी पड़दादी (बीबी) भानी जी की स्मृति में एक कुआँ है, जिस पर आपने पुष्पमाला चढ़ाकर उनको श्रद्धाँजलि अर्पित की। वहाँ पर आपके दर्शनों के लिए विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा, जिनसे आज्ञा लेकर आगे बढ़ना कठिन हो गया, अधिकाँश लोगों का आग्रह था कि आप उनके क्षेत्र में पदार्पण करें। गुरूदेव जी ने सभी को आश्वासन दिया कि समय मिलते ही, वे उनके क्षेत्र में अवश्य ही आयेंगे। इस प्रकार आप श्री गोइँदवाल साहिब से श्री खडूर साहिब जी नगर पहुँचे। वहाँ पर भी स्थानीय संगत ने आप का भव्य स्वागत किया और दीवान सजाये गये। आपने समस्त संगत को कृतार्थ किया और उनसे आज्ञा लेकर बाबा बकाला नगर वापिस आ गये।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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