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7. गुरू लाधो रे

श्री गुरू नानक देव जी और उनके पँथ पर श्रद्धा रखने वाला एक धनाढ़य व्यापारी मक्खणशाह, जिसका देश-विदेश में माल आयात-निर्यात होता था। एक बार एक जहाज में उसका माल लदा हुआ था कि समुद्री तूफान के कारण जहाज रास्ता भटककर चट्टानों में फँस गया, तूफान थमने पर जहाज रेत में फँसा रह गया। जहाज में माल के कारण भार भी बहुत था। अब वह किसी विधि से भी पुनः समुद्र में तैरने की स्थिति में नहीं था। सभी कर्मचारियों तथा मल्लाहों ने अपने सभी प्रयत्न करके देख लिये और वे थकहार कर बैठ गये। इस पर मक्खन शाह ने धैर्य नहीं छोड़ा, उसने सभी से कहा “मैं गुरू चरणों में प्रार्थना करता हूँ, मुझे पूर्ण आशा है कि भगवान हमारी सहायता अवश्य करेंगे।” अतः उसने सभी को प्रार्थना में सम्मिलित करके गुरू चरणों में वन्दना की कि हे गुरूदेव ! मेरे इस जहाज को जैसे तैसे फिर से पानी में उतार दो, मैं लाभ होने पर दसमाँश की राशि यानि दसवाँ भाग लेकर आपके दरबार में उपस्थिति होऊँगा। प्रार्थना समाप्त होने पर सभी ने फिर से जहाज को समुद्र में उतारने के प्रयत्न किये जो कि इस बार सफल सिद्ध हुए।

सभी आश्चर्य में भी थे कि इस बार सहज में ही जहाज पानी में उतर गया था। कार्य समाप्त होने पर मक्खनशाह लाभ का दसमाँश लेकर दिल्ली आया और उसे वहाँ मालूम हुआ कि आठवें गुरू श्री हरिकिशन जी का देहावसन (ज्योति विलीन) हो चुका है। अब उनके स्थान पर नौवें गुरू बकाला ग्राम में हैं। वह अपने कर्मचारियों सहित बकाला पहुँचा। वहाँ उसे बहुत विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा, चारों तरफ दँभी गुरूओं की भरमार थी, जो उनके मसँद (एजेन्ट), साहूकार भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। मक्खन शाह उलझन में पड़ गया। अनेक गुरूओं को देखकर उसका दिमाग चकराने लगा। मकनशाह, उनकी स्वार्थ परता और खींचतान की बातों को इस कान सुनता और उस कान निकाल देता। वह अपने मन में सोचता, ‘ये सभी तो भिखारी हैं’ गुरू तो दाता होता है, वह कभी किसे के आगे हाथ नहीं फैलाता और न ही किसी अपरिचित के सामने हक जताता है। यदि मेरा दसमाँश उपयुक्त महापुरूष के पास न पहुँचा तो इससे बड़ी मेरी नासमझी और क्या होगी ? मक्खणशाह इसी उधेड़बुन में था कि उसने एक युक्ति से काम लेने का मन बनाया, जिससे सच्चे गुरू के पास पहुँचा जा सके। उसने वास्तविक ’गुरू‘ जी को पहचानने के लिए सभी की परीक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी। वह प्रत्येक गुरू के आगे दो मोहरें भेंट करता गया। उसका विचार था कि सच्चे गुरू जी उससे सम्पूर्ण दसमाँश की राशि स्वयँ ही माँग लेंगे और उसके जहाज के फँसने की बात उसे बतायेंगे। किन्तु उसे निराशा हुई। किसी भी ढोंगी गुरू ने उससे ऐसा कुछ नहीं कहा, बल्कि उन्होंने खुशी खुशी दो मोहरें स्वीकार कर ली। जब मक्खणशाह से बाकी धन का किसी ने तकाजा न किया तो वह वहाँ पर लोगों से पूछने लगा, ‘ क्या गुरू जी के वँश का कोई और भी व्यक्ति यहाँ रहता है ? उसने बकाला नगर की गलियों में कुछ बच्चे खेलते हुए पाये, तब उसने उनसे यही प्रश्न फिर से पूछा– इस पर एक बच्चे ने बताया कि वहाँ तेगा नाम से विख्यात गुरूवँश का एक व्यक्ति रहता है किन्तु वह किसी से मिलता जुलता नहीं। मक्खनशाह ने उस बच्चे से उनके घर का पता पूछा और वहाँ जा पहुँचा। माता नानकी जी से भेंट हुई। उन्होंने बताया, वे (गुरू) तो भोरे (भूमिगत कमरे) में भजन करने में व्यस्त रहते हैं। मक्खनशाह वहाँ पहुँचा, उस समय गुरू तेग बहादुर जी समाधिस्थ थे। तब उसने पहले की तरह दो मोहरें गुरूदेव के सम्मुख रखकर मस्तिष्क झुका दिया। तभी गुरूदेव ने आँखें खोली और मक्खनशाह से कहा– तुम हमारे कँधे से चादर हटाकर देखो कि उसमें अभी भी घाव है, जो तेरे जहाज को कँधा लगाते समय कीलों द्वारा क्षतिग्रस्त हुआ था। हमें तुम्हारा धन नहीं चाहिए, किन्तु कहीं तुम्हें यह भ्रम न हो जाये कि पूर्ण गुरू कोई है ही नहीं।

इस प्रकार मक्खनशाह को यह पक्का प्रमाण मिल गया कि सँकट के समय में उसी गुरू साहिब जी ने उसके जहाज को किनारे पर लगाया था और वह कँधे का घाव उसी का सूचक है। और उसने तुरन्त दसमाँश की पूरी रकम श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी के चरणों में अर्पित कर दी। गुरूदेव जी ने भी आस्थावान सिक्ख का उपहार स्वीकार करते हुए कहा– गुरूगद्दी कोई मौजमेले का स्थान नहीं, यह तो एक महान जिम्मेदारी है। इस पर मक्खनशाह ने कहा– महाराज ! यदि आप छिपे रहेंगे तो सिक्ख भटक भटक कर श्रद्धाहीन हो जाएँगे, गुरू महिमा घट जाएगी। जब आपने मुझ जैसे दीन-हीन का जहाज बिना बताए पार लगा दिया है तो अब ढोंगियों के हाथों डूबते सिक्ख समुदाय को भी बचाने की कृपा कीजिए। गुरूदेव जी ने भी महसूस किया कि अब वह समय आ गया है, जब उन्हें प्रकट होना चाहिए। अतः गुरू आज्ञा प्राप्त करके, मक्खनशाह ने वहाँ पर एक ऊँचे मकान की छत पर चढ़कर ऊँचे स्वर में संगत को संदेश दिया– गुरू लाधो रे, गुरू लाधो रे, अर्थात पूर्ण गुरू खोज लिया है। जैसे ही इस सन्देश और घटनाक्रम का संगत को ज्ञान हुआ, वे ढोंगियों के चँगुल से निकलकर श्री गुरू तेग बहादुर जी के समक्ष हाजिर हुए। वहाँ संगत ने श्रद्धावश उपहारों के ढ़ेर लगा दिये। समस्त नगर श्री गुरू तेग बहादुर की जय-जयकार से गूँज उठा।

धीरे धीरे सब ढोंगी गुरू छँटने शुरू हो गये, किन्तु धीरमल सातवें गुरू के ज्येष्ठ भाई यह सब देख सुनकर क्रोध से पागल हो उठा। उसने अपने कुछ लोगों को साथ लेकर गुरू तेग बहादुर के निवास स्थान पर धावा बोल दिया और जो धन उपहार अथवा भेंट स्वरूप आया था, उन्हें लूटकर ले गये। जाते समय उनके एक मसँद (एजेन्ट) शीहाँ ने गुरू तेग बहादुर जी पर गोली चला दी, जो गुरूदेव के कान पर घाव बनाती हुई निकल गई। मक्खनशाह के डेरे में भी इस गोली काण्ड की खबरें पहुँच गई। बदले में तुरन्त मक्खनशाह के नेतृत्त्व में सतसँगी सिक्खों ने धीरमल के घर पर हमला किया और उनका सारा माल-असवाब लूट लिया। जिसमें आदि श्री ग्रन्थ साहब की वह बीड़ (पाण्डु लिपि) भी थी, जिसे गुरू अरजन देव ने अपने जीवनकाल में तैयार करवाया था, उसी ग्रन्थ के बलबूते पर धीरमल अपने आपको गुरूओं का वास्तविक उत्तराधिकारी कहकर लोगों को ठग रहा था। मक्खनशाह के कर्मचारियों ने धीरमल के उन पिछलग्गुओं की मुश्कें बाँध दी, जिन्होंने गुरू तेग बहादुर जी पर गोली चलाई थी। वे सभी वस्तुएँ और व्यक्ति गुरू तेग बहादुर जी के समक्ष पेश किये गये, किन्तु उन्होंने सभी को क्षमा कर दिया, क्योंकि गुरू जी क्षमा को सभी प्रकार के तप साधनों से कहीं अधिक कल्याणकारी और गुण-युक्त मानते थे। यहाँ तक कि वह लूट का माल भी सारा लौटा दिया, किन्तु सिक्खों ने केवल वह पवित्र ग्रन्थ (आदि बीड़) नहीं लौटाया। माता नानकी जी का विचार था कि आदि बीड़’ (ग्रँथ साहब) की नकल करवा करके उसकी दूसरी प्रति तैयार हो जाने पर मुख्य बीड़ लौटा देंगे। इस बात को उन्होंने अपने तक सीमित रखा। यह रहस्य श्री गुरू तेगबहादुर जी को नहीं बताया गया कि उन्होंने आदि ग्रन्थ साहब की बीड़ नहीं लौटाई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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