6. गुरयाई मिलना
जब श्री गुरू हरिगोबिन्द जी ने अपने उत्तराधिकारी का चयन किया तो उन्होंने अपने
पौत्र श्री हरिराय जी को गुरूयाई गद्दी सौंप दी, वे उस समय लगभग 14 वर्ष के थे। इस
पर माता नानकी जी ने गुरूदेव से प्रार्थना की और कहा– आपने अपने पुत्रों के विषय
में क्या सोचा है ? तभी हुक्म हुआ, ’आप अपने मायके बकाला नगर चली जाओ और बेटे व बहू
को भी वहीं निवास करना होगा, समय आने पर प्रभु इच्छा से वह सभी कुछ तेग बहादुर को
प्राप्त होगा जिसका वह अधिकारी है। माता नानकी जी सन्तुष्ट हो गये और वचन मानकर वे
बहू बेटे के साथ बकाला नगर ले गईं और उस समय की प्रतीक्षा करने लगी। इसी बीच गुरू
हरिराय जी ने अपनी अन्तिम अवस्था में गुरूयाई की गद्दी अपने बडे पुत्र रामराय जी को
न देकर छोटे पुत्र (गुरू) हरिकृष्ण जी को दे दी। उत्तराधिकारी का चयन व सँकेत श्री
गुरू हरिकृष्ण साहब जी ज्योति विलीन होने से पूर्व अपने उत्तराधिकारी का चयन कर गये
थे। कुछ प्रमुख सेवकों के पूछने पर ’आपके निधन के पश्चात् श्री गुरू नानक देव जी की
गद्दी पर कौन विराजमान होगा ? उत्तर में गुरूदेव जी ने गुरू परम्परा अनुसार कुछ
सामग्री एक थाल में रखकर उस थाल को आरती उतारने के अन्दाज में घुमाकर वचन किया
‘बाबा बसे ग्राम बकाले’। उन दिनों गुरू परिवार से सम्बन्घित केवल श्री तेग बहादुर
जी ही अपने ननिहाल ग्राम में रहते थे। यह बात सर्वविदित थी। रिश्ते में श्री तेग
बहादुर जी, श्री गुरू हरिकृष्ण जी के बाबा अर्थात दादा लगते थे। किन्तु सिक्ख
परम्परा में बाबा शब्द का प्रयोग गुरू नानक देव जी की गद्दी पर विराजमान महान
विभूतियों के लिए भी प्रयोग होता था। एक शब्द के दो अर्थों के कारण कुछ स्वार्थी
और लालची, जनसाधारण को भ्रमजाल में फँसाकर अपनी पूजा करवाने के विचार से पँजाब के
बकाला ग्राम में गद्दी लगाकर अपने आपको वास्तविक गुरू होने का दावा कर रहे थे। धीरे
धीरे उनकी गिनती 22 तक पहुँच गई। गुरू परम्परा अनुसार दिल्ली से वे वस्तुएँ जो गुरू
हरिकिशन जी ने अपने द्वारा चयन किये गये नये गुरू के लिए भेजी थी, उसके परम सेवक
दीवान दरगाहमल, भाई दयाला जी, भाई जेठा जी तथा माता सुलखणी जी लेकर पहले कीरतपुर
पहुँचे फिर वहाँ से (बाबा) बकाले ग्राम पहुँचे। परन्तु वहाँ तो उनकी आशा के विपरीत
दृश्य देखने को मिला। सोढी धीरमल करतारपुर से तथा पृथ्वीचँद के पौत्र हरि जी श्री
अमृतसर साहिब जी से वहाँ पर अपना अपना गुरूदम्भ चला रहे थे। जब उनसे पूछा गया कि वे
लोग वहाँ के निवासी तो हैं ही नहीं तथा न ही गुरू हरिकृष्ण जी ने रिश्ते में बाबा
लगते थे, फिर वे गुरू कैसे बनें ? तो उत्तर में वे कह देते कि उनकी वहाँ सिक्खी
सेवकी है, वे प्रचार दौरे पर वहाँ आये हुए थे कि गुरू जी के निधन के समय उन्हें
गुरूगद्दी दी है। उन पाखण्डी लोगों की दुकानदारी चमकती देखकर धीरे-धीरे स्वघोषित
गुरूओं की सँख्या बढ़ने लगी, वे अपने मसँदों (सेवकों) द्वारा स्वयँ को पूर्ण अथवा
सतगुरू होने का दावा जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत करते। इस प्रकार नौवें गुरू के
दर्शनों को आई संगत को वे गुमराह करने में सफल हो जाते। विवेकबुद्धि जिज्ञासु उन
ढोंगियों को देखकर दुविधा में थे कि उनमें वास्तविक गुरू कौन होगा ? किन्तु ऐसा
निर्णय किस कसौटी पर किया जाये। यह समस्या बनी हुई थी। यही स्थिति लगभग 4 माह तक बनी
रही, तब तक इन दम्भी गुरूओं की सँख्या 22 हो गई। श्री गुरू हरिकृष्ण जी का दिल्ली
से आया प्रतिनिधिमण्डल बकाला नगर में श्री तेग बहादुर साहब जी को मिला और उन्हें
समस्त परिस्थितियों से अवगत कराया गया और उन्हें वह पवित्र सामग्री सौंप दी गई। भला,
श्री तेग बहादुर जी गुरू हरिकृष्णजी का निर्णय कैसे अस्वीकार कर सकते थे ? किन्तु
जब उन्हें विधिवत् घोषणा की बात कही गई तो वह बोले– ’फिलहाल इस बात को रहस्य बना
रहने दो। मैं नहीं चाहता कि इस समय गुरूगद्दी पर बैठकर वातावरण को और भी
दुविधाग्रस्त कर दिया जाये। समय आयेगा जब झूठों का मुँह काला होगा तो वह स्वयँ ही
भाग खड़े होंगे।
कूड़ निखुटे नानका ओड़ कि सचि रही। अंग 953
तब मैं स्वयँ ही सिक्ख पँथ का नेतृत्त्व सँभाल लूँगा। इस प्रकार
लगभग 45 माह तक श्री गुरू तेग बहादुर जी शान्त बने रहे। इस बीच संगत विभिन्न
स्वघोषित गुरूओं के पास आती-जाती रही। कोई किसी गुरू को माथा टेकता तो कोई किसी गुरू
को सेवा-भेंट देता।