35. शहीदी भाई दयाला जी
समय की हकूमत द्वारा चलाई हुई आत्याचार की इस आँधी के दूसरे शिकार थे भाई दयाला जी।
अगले दिन भाई दयाला जी को बन्दीखाने से बाहर, चौक में लाकर उन्हें काज़ी द्वारा फतवा,
दण्ड सुनाया गया कि यदि वे इस्लाम को स्वीकार कर लें तो उन्हें जीवनदान दिया जाये
अन्यथा उबलते हुए पानी की देग में उबालकर मार दिया जाये। काज़ियो ने भाई साहिब को
इस्लाम के गुणों पर ब्याख्यान सुनाया और ऐशों आराम के जीवन तथा स्वर्गो मे हूरों की
प्राप्ति के बारे में अनेकों झाँसे दिये किन्तु भाई साहिब अपने सिखी विश्वास में
अडोल रहे इस पर उन्होंने डराना-धमाकाना प्रारम्भ किया और कहा कि उन्होंने उसके साथी
को इस्लाम न स्वीकार करने पर निर्दयता से मौत के घाट उतार दिया है। अब उसकी उससे भी
अधिक दुर्दशा की जायेगी। भाई दयाला जी ने उत्तर दिया, भाई मती दास जी को मरा मत समझो
बल्कि वे तो मृत्यु से ठिठोली करके, दूसरों के लिए प्रेरणादायक दिशानिर्देश देकर सदा
के लिए अमर हो गये हैं। और अकाल पुरूष के चरणों में स्वीकारीय हो चुके हैं। काज़ी
साहिब जल्दी करो वह भी भाई मतीदास के पास पहुंचने के लिए लालायित हो रहा हैं। उसकी
अन्तिम इच्छा भी अपने गुरू, श्री गुरू तेगबहादूर साहिब के समक्ष शहीद होने की है। तभी काज़ी के फतवे के अनुसार जल्लादों ने देग यानि बहुत बड़े
बर्तन में पानी डालकर भाई दयाला जी को बिठा दिया और चूल्हे में आग जला दी।
ज्यों-ज्यों पानी गर्म होता गया, त्यों-त्यों भाई जी गुरूबाणी उच्चारण करते हुए अपने
गुरूदेव के सम्मुख अकालपुरूष (परमात्मा) के चिन्तन में विलीन होते गये। पानी उबलने
लगा। भाई जी के चहरे पर दिव्य ज्योति छाई और वह शाँतचित, अडिग ज्योति-ज्योत समा गये
और अपने विश्वास को आँच नहीं आने दी। जनसाधारण ने देखा कि इतने बड़े दण्ड को शरीर पर
झेलते हुए भाई जी ने कोई कड़वा वाक्य नहीं कहा और आपने धार्मिक निश्चय में कहीं भी
कोई शिथिलता नहीं आने दी। यह भयभीत दृश्य देखकर कुछ लोगों ने आँसू बहाये और कुछ ने
आहें भरी और अत्याचारी प्रशासन के विनाश हेतु मन ही मन प्रमात्मा से प्रार्थना करते
हुए घरों को चले गये।