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32. गुरू जी की काजी और औरँगजेब के साथ विचारगोष्ठी

गुरूदेव की गिरफ्तारी का सन्देश जब औरँगज़ेब को प्राप्त हुआ तो उसने अपनी सेना के वरिष्ट अधिकारियों को आदेश दिया कि श्री गुरू तेगबहादुर साहिब जी को बा-इज्ज़त, परन्तु कड़े पहरे में दिल्ली लाया जाए। ऐसा ही किया गया। गुरूदेव को उनके साथी सिक्खों सहित एक भूत बँगले में ठहराया गया। विश्वास किया जाता था कि वह भवन शापित था और उसमें प्रेत आत्माएँ रहती थीं जो कि वहाँ ठहरने वालों को मार ड़ालती थीं अर्धरात्री को वहाँ एक काणा तथा करूप व्यक्ति फल लेकर आया और उसने अपने घर पर आगन्तुकों को पाकर उनको भयभीत करने का असफल प्रयास किया। जब उसका वश नहीं चला तो उसने शान्तचित, अडोल गुरूदेव के समक्ष पराजय स्वीकार कर ली। तथा निकटता स्थापित करने के लिए गुरूदेव को फल भेंट किये। गुरूदेव ने उसकी प्रेम भेंट स्वीकार करते हुए, फलों को पाँच भागों में बाँटकर सेवन किया। गुरूदेव ने उस व्यक्ति से पूछा कि वह वहाँ क्यों रहता हैं और वहाँ आने वालो की हत्या क्यों करता हैं उत्तर में उसने बताया कि उसका चेहरा भद्दा हैं और एक आँख से काणा हैं इसलिए लोग उससे घृणा करते है इसीलिए ही वह एकान्तवास में समाज से दूर रहता हैं। वह किसी की हत्या नहीं करता केवल अपने प्रतिद्वन्दी को भयभीत करता हैं ताकि वह उसके निवास पर कब्जा न करें किन्तु लोग अकसर डर अथवा भयभीत होकर मर जाते है। क्योंकि उनकी हृदयगति आतँक से रूक जाती हैं। गुरूदेव ने उसके कल्याण के लिए उसे भजन करने का उपदेश दिया और कहा कि मानवता की सेवा करों तब उससे कोई घृणा नहीं करेगा। प्रातः पहरेदारों ने जब गुरूदेव तथा उनके साथियों को प्रसन्नचित पाया तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। दूसरे दिन गुरूदेव तथा अन्य सिक्खों का भव्य स्वागत किया गया और औरँगज़ेब ने एक विशेष गोष्ठी का आयोजन किया। जिसमें मुल्लाओं, काज़ियों तथा उमराओं ने गुरूदेव के सँग विचारविमर्श मे भाग लिया। औरँगजेब ने भी स्वयँ उस गोष्ठी के सँयोजक के रूप में भाग लिया। और गुरूदेव से कहा: कि वह निवेदन पत्र उसे हिन्दू जनता के प्रमुखों से प्राप्त हुआ है कि आप उनका नेतृत्व करेंगे। जबकि आप स्वयँ बुतप्रस्त मूर्तिपूजक अथवा देवी-देवताओं के उपासक नहीं हैं। और उनकी तरह एक खुदा को ही मानने वाले हो। फिर आप अपने सिद्धान्तों के विरूध्द इन काफिरों का पक्ष क्यों ले रहे हो ? गुरूदेव ने इसके उत्तर में कहा: कि हिन्दुओं का पक्ष लेने की कोई बात नहीं, यह तो केवल मानवता के मूल सिद्धान्तों की तरफदारी हैं। अतः शासक वर्ग को प्रजा के व्यक्तिगत जीवन मे कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई राम जपे या रहीम इन बातों से प्रशासन को कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। यदि शासन व्यवस्था में कोई बाधा डालता हैं तो वही व्यक्ति दण्डनीय होना चाहिए। परन्तु बिना किसी कारण केवल अपने मज़हबी जनून मे आकर प्रजा का दमन करना उचित नहीं। इस पर औरँगजेब ने कहा: कि वह चाहता हैं कि अरब देशों की तरह भारतवर्ष में भी एक सम्प्रदाय, केवल दीन ही हो। जिससे सभी प्रकार के आपसी मतभेद सदैव के लिए समाप्त हो जाएँगे। वास्तव में पैंगबर हजरत मुहम्मद साहिब का यह आदेश है कि सभी काफिरों को बलपूर्वक मोमन बनाना चाहिए ऐसा करने वाले को बहिशत, स्वर्ग अथवा सब्ब, पुण्य प्राप्त होगा। अतः उसें इन काफिरों पर दया आती है और विचार उत्पन होता है कि इन काफिरों, नास्तिकों को खुदा परस्त आस्तिक बनाकर इनका जन्म सफल कर दें। इसलिए उसने प्रतिज्ञा की है जो मुहम्मदी बनेगा उसको सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँगी अन्यथा इसके विपरीत मृत्युदण्ड भी दिया जा सकता है।गुरूदेव ने उत्तर दिया: कि जिस क्षेत्र में केवल मुहम्मदी ही रहते है क्या वहाँ शिया सुन्नी झगड़े नहीं होते ? जैसे एक बगीचे में भान्ति-भान्ति के फूल खिले हुए होने पर उसका सौन्दर्य बढ़ जाता है ठीक इसी प्रकार यह विश्व उस प्रभु की सुन्दर वाटिका है जिसमें भाँति-भाँति के विचारों वाले मनुष्य उसके हुक्म अथवा उसकी इच्छा से उत्पन्न होते हैं। यदि प्रकृति को तुम्हारी बात स्वीकार होती तो वह हिन्दुओं के यहाँ सन्तान ही न पैदा करती। इसके विपरीत मुसलमानों के यहाँ ही सँतान उत्पन होतीं जिसे सभी अपने आप मुसलमान हो जाते और यह निर्णय अपने आप लागू हो जाता।मुल्लाओं ने कहा: हिन्दू लोग अकृतघन हैं। वे उनके लिए अपने प्राणों की आहुति दे दें तो भी वे समय आने पर पीठ ही दिखायेंगे। क्योंकि यह किसी का परोपकार मानते ही नहीं। उत्तर में गुरूदेव ने कहा: कि वे तो निस्वार्थ तथा निष्काम मानवता के हित के लिए कार्य करते है यदि जूल्म हिन्दू करते। तो वे मुस्लिमों के पक्षधर होते, जो मज़लूम होता अर्थात वे दीनहीन और अशक्त व्यक्तियों पर आत्याचारों के सख्त विरोधी हैं। भले ही वह हिन्दू हो अथवा मुस्लिम।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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