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25. महंत बलाकीदास की माता की श्रद्धा

महंत बलाकी दास जी की माता गुरू नानक देव जी पर अपार श्रद्धा रखती थी। अतः वह अपने पुत्र बलाकीदास को सदैव प्रेरणा करती थी कि वह पँजाब जाकर गुरू जी के उत्तराधिकारी वर्तमान गुरूदेव श्री गुरू तेग बहादर जी को बँगाल की संगत का उद्धार करने के लिए आमन्त्रित करे। बलाकीदास माता जी को कह देता कि सच्चे हृदय से याद करने पर गुरूदेव स्वयँ ही खींचे चले आते हैं। इस तथ्य को हृदय में बसाकर माता जी ने एक सुन्दर पलँग तैयार करवाया। गुरूदेव के आगमन पर उनको कहाँ विराजमान करवाया जाये। इस कार्य के लिए उन्होंने एक विशेष भवन भी बनवाया, जहाँ गुरूदेव जी को सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हों। मन की श्रद्धा जनून का रूप ले गई, अतः वह हर समय गुरूदेव की याद की धुन में खोई रहने लगी। एक दिन माता जी ने विचार किया कि यदि गुरूदेव यहाँ पधारें तो उन्हें यहाँ के वातावरण के अनुकूल वस्त्र भी चाहिएं। अतः वह बँगाली कुर्ता और उसी अनुसार अन्य वस्त्र तैयार करने के लिए जुट गई। पहले उन्होंने पतला सूत काता, फिर वस्त्र तैयार किये। किन्तु गुरूदेव जी तो अभी पधारे नहीं। माता जी का धैर्य टूट गया। उन्होंने पुत्र को पँजाब जाने के लिए तैयार कर लिया। महंत बलाकीदास अपनी माता जी के आग्रह पर कुछ सहायकों को साथ लेकर पँजाब के लिए चल पड़ा, किन्तु उनकी भक्ति रँग लाई, उन्हें गुरूदेव रास्ते में ही पटना नगर में ही मिल गये। वह तो पहले से ही अपने भक्तों की सुध लेने नगर नगर घूम रहे थे। अतः अब कोई बाधा तो थी ही नहीं, केवल कुछ सौ मील की दूरी थी, जो कि प्रेम मार्ग की रूकावट नहीं बन सकती थी। ढाका की संगत में पुनः गुरूमति प्रचार करने गुरूदेव जी रास्ते के बड़े नगरों में पड़ाव करते ढाका पहुँचे। वहाँ बलाकीदास जी की माता जी ने उनका भव्य स्वागत किया और अपने हाथों से तैयार वस्त्र धारण करने को दिये। वह गुरूदेव के दीदार पाकर अति प्रसन्न हुई। गुरूदेव जी को ढाका पधारे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि राजा रामसिँह उन्हें अपने साथ आसाम के अभियान में विजय प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर लेने आ पहुँचा। इतनी जल्दी गुरूदेव आसाम चले जाएँगे, उनको आशा न थी। अतः माता जी को गुरूदेव जी के अकस्मात् चले जाने पर बहुत निराशा हुई, किन्तु उन्होंने गुरूदेव से वहाँ की सफलता के पश्चात् लौटकर आने का वायदा ले लिया था। इस बीच माता जी के मन में एक विचार ने जन्म लिया कि क्या अच्छा होता, यदि गुरूदेव जी की एक तस्वीर हमने बनवा ली होती। इस विचार को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़े चित्रकार को अपने पास बुलाकर रख लिया और उसे समझाया, गुरूदेव तस्वीरों में विश्वास नहीं रखते। अतः वह अपनी तस्वीर बनवाने नहीं देंगे, इसलिए तुमने उनके लौटने पर उनकी गुप्त रूप से तस्वीर तैयार करनी है, क्योंकि महापुरूषों का एक स्थान टिकना सम्भव नहीं हो सकता। गुरूदेव जी अपने वचन अनुसार आसाम के अभियान की समाप्ति पर लौट आये। माता जी के आदेश अनुसार चित्रकार ने गुप्त रूप से गुरूदेव जी का चित्र तैयार किया, किन्तु वह गुरूदेव के मुखमण्डल का चित्र बनाने में असफल रहा। उसने माता जी को बताया कि वह जब ध्यान लगाकर गुरूदेव के चेहरे पर दृष्टि डालता है तो वह उनकी तेजस्वी आभा को सहन नहीं कर सकता, जिस कारण नेत्र, नाक व मुख इत्यादि चित्रित नहीं कर सका। माता जी ने उसे एक बार फिर प्रयत्न करने को कहा, किन्तु चित्रकार ने अपनी विवशता बताई। इस पर माता जी ने गुरूदेव जी के समक्ष अपनी अभिलाषा रखी और कहा कि मुझे आपका एक चित्र चाहिए किन्तु वह अधूरा है। गुरूदेव जी ने उनकी सच्ची लगन देखी और कहा कि कोई बात नहीं, आपको निराश नहीं होना पड़ेगा। मैं स्वयँ अपने हाथों अधूरा चित्र पूरा किये देता हूँ। इस प्रकार उन्होंने अपना चित्र स्वयँ तैयार करके माता जी को दे दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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