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23. गुरू परिवार पटना नगर में

श्री गुरू तेग बहादर जी अपने प्रचार अभियान के अन्तर्गत इलाहाबाद से मिर्जापुर, बनारस, गया जी होते हुए पटना (बिहार) में पधारे। आपके काफिले ने एक बाग में इमली के वृक्ष के पास अपना शिविर लगाया। यह बाग स्थानीय नवाब रहीमबख्श तथा करीमबख्श का था। गुरूदेव के चरण पड़ते ही इस उजड़े हुए बाग में हरियाली आ गई। यह बात समस्त पटना नगर मे फैल गई। बाग के मालिक भी यह समाचार सुनकर बड़े हैरान हुए। दोनों भाई अपनी अपनी बेगमों को लेकर गुरूदेव जी से मिलने इमली के वृक्ष के नीचे पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि एक ऊँचे कद व सुडौल शरीर के एक हँसमुख सज्जन उस उद्यान का निरीक्षण कर रहे हैं। रहीमबख्श व करीमबख्श ने अपनी अपनी पत्नियों के साथ गुरूदेव जी को सलाम किया। जब गुरू तेग बहादर जी ने उनसे पूछा कि यह बाग किसका है तो उन्होंने उत्तर दिया कि हजूर ! यह आपका ही है। गुरूदेव जी ने तीन बार यही प्रश्न दो हराया और हर बार उन दोनों भाइयों का ही नपा-तुला उत्तर था। इस पर गुरूजी ने बाग के चारों ओर दीवार बनवाने के लिए कहा। जिसे उन्होंने पूरा करवा दिया। कालान्तर में यहाँ एक गुरूधाम की स्थापना हुई जिसका नाम गुरूद्वारा गुरू का बाग है। पटना नगर का एक धनाढ़य व्यक्ति भाई जगता को जब श्री गुरू तेग बहादर साहिब के आगमन की सूचना मिली तो वह उन्हें अपनी हवेली में आमन्त्रित करने पहुँचा, यह परिवार गुरू नानक काल से सिक्खी धारण किये था। गुरूदेव ने भाई जगता सेठ का आग्रह स्वीकार कर लिया। भाई जगता सेठ ने गुरू परिवार का अपनी हवेली में भव्य स्वागत किया। जगता सेठ गुरू नानक देव जी द्वारा दृढ़ करवाए उनके तीनों सिद्धान्तों को रोजमर्रा के जीवन में बहुत अच्छी तरह पालन करता था, कीरत करो, वंड छको और नाम जपो। यह सिद्धान्त उसने जीवन के अँग के रूप में अपना रखे थे। अतः वह सेठ होते हुए भी साधारण मजदूर की तरह जीवन व्यतीत करता था, उसने कभी धन का अभिमान नहीं किया था। भाई जगता जी के यहाँ अब धूमधाम रहने लगी। भाई जगता सेठ की हवेली आलमगँज में गुरूदेव जी प्रतिदिन दीवान सजाने लगे। कुछ ही दिनों में भारी सँख्या में संगत एकत्रित होने लगी। भाई जगता जी ने गुरूदेव को दसमाँश यानि आय का दसवा भाग की राशि भेंट की, गुरूदेव जी ने तुरन्त उससे लंगर चलाने को कहा। संगतों का जमावड़ा दिन-प्रतिदिन बड़ने लगा, इसलिए गुरूदेव जी ने हवेली वैसाखीराम में निवास कर लिया, यह स्थान बड़ा तथा सुरक्षित था। इन्हीं दिनों ढाके (बंगाल) से महंत बुलाकी दास आपके चरणों में उपस्थित हुआ। उसने अपने नगर निवासियों की तरफ से निवेदन किया कि हे गुरूदेव ! आप प्रचार दौरे पर हैं, कृप्या हमारे यहाँ पधारे। वहाँ की स्थानीय संगत गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी से मिलना चाहती है। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी ने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया, किन्तु उनके समक्ष वर्षा ऋतु में यात्रा करना एक समस्या थी, अतः उन्होंने निर्णय लिया कि वर्षा समाप्त होने के पश्चात् यात्रा प्रारम्भ करेंगे। जब श्री गुरू तेग बहादर साहब जी के ढाका प्रस्थान का समय निकट आया तो माता नानकी जी ने उनसे आग्रह किया कि कुछ माह और ठहर जाओ तो सन्तान का मुख देखने को मिल सकता है, किन्तु गुरूदेव ने उत्तर दिया कि हमारा लक्ष्य संगत को कृतार्थ करना है ना कि व्यक्तिगत खुशियों के लिए समय नष्ट करना। उन्होंने परिवार को स्थानीय संगत के सँरक्षण में छोड़ दिया। आप अक्तूबर, 1666 ईस्वी को ढाका नगर के लिए बुलाकीदास महंत की प्रेरणा से प्रस्थान कर गये। मार्ग में आप गँगा किनारे मुंधीर नगर में ठहरे और वहाँ की संगत को गुरू नानक देव जी के सहज और सरल सिद्धान्तों से अवगत करवाया। तद्पश्चात् भागलपुर, साहिब गँज, राजमहल तथा मालदा इत्यादि नगरों की संगत से भेंट करते हुए मुर्शदाबाद जाकर विराजमान हुए। यहाँ आप स्थानीय संगतों के आग्रह पर कुछ दिन ठहरे और अन्त में ढाका नगर पहुँचे। यह आपकी मँजिल थी। ढाका, श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी महंत बुलाकीदास के आग्रह पर उसके साथ पटना से ढाका पहुँचे। यहाँ की स्थानीय संगत ने आपका भव्य स्वागत किया। उन दिनों यहाँ पर श्री गुरू नानक देव जी की स्मृति में एक भव्य स्मारक था जहाँ प्रतिदिन सतसंग हुआ करता था। जैसे ही उस क्षेत्र के निवासियों को मालूम हुआ कि नौंवे गुरू नानक पधारे हैं तो गुरूदेव जी के दर्शनों को अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। सभी लोग अपनी श्रद्धा अनुसार यथाशक्ति गुरूदेव जी को अपने दसमाँश की राशि यानि अपनी आय का दसवाँ भाग भेंट करने पहुँचे। गुरूदेव जी ने वह समस्त धन जनहित के लिए सार्वजनिक कार्यों के लिए खर्च करने का आदेश दिया और गुरूघर की मर्यादा अनुसार लंगर प्रथा प्रारम्भ कर दी गई। भण्डारा प्रारम्भ होने से दर्शनार्थियों को सुविधा मिलते ही पूरे प्रदेश से नानक पँथियों का जमावड़ा हर समय रहने लगा। जिसे देखकर गुरूदेव जी कह उठे– मम सिक्खी का कोठा ढाका अर्थात ढाका मेरे सिक्ख प्रेमियों का गढ़ है। इन्हीं दिनों साम्राज्यवादी औरँगजेब ने नरेश राम सिंहजैपुरिया को मुगल सेनानायक बनाकर, आसाम (कामरूप) प्रदेश के नरेश चक्रध्वज पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजा चक्रध्वज अहोम जाति (कबीले) से सम्बन्ध रखता था। इसने पुरानी सँधि रद्द करके अपने को स्वतन्त्र राजा घोषित कर दिया था और उसने महत्त्वकाँक्षी औरँगजेब की नींद हराम कर रखी थी। राजा रामसिंह जैपुरिया आसाम के लिए चल तो पड़ा किन्तु उसको आसाम के बारे में ऐसी ऐसी सूचनाएँ मिली थी कि वहाँ की जादूगरनियों के आतँक से सभी भयभीत थे, विश्वास किया जाता था कि वह पलक झपकते ही अपनी चमत्कारी शक्तियों से बड़ी बड़ी सेना का विनाश कर देती हैं। दूसरा उस क्षेत्र की जलवायु बड़ी खराब थी, जिससे भान्ति भान्ति के रोग फैल जाते थे। ऐसे में उसे एक ही सहारा दिखाई दिया, वह था गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी नौंवे गुरू तेग बहादुर। राजा जैसिँह गुरू घर का बहुत बड़ा श्रद्धालु था। अतः उसके पुत्र राजा रामसिंह ने भी उसी विश्वास से गुरू जी की शरण लेने के विचार से मालूम किया कि इन दिनों गुरू तेग बहादुर साहब कहाँ हैं ? जब उसे मालूम हुआ कि वह तो इन दिनों बिहार पटना में प्रचार अभियान पर गये हुए हैं तो वह प्रसन्न हो उठा, किन्तु पटना नगर पहुँचने पर उसे मालूम हुआ कि गुरूदेव जी तो ढाका नगर की संगत के निमन्त्रण पर वहाँ गये हुए हैं। राजा रामसिंह ने गुरूदेव की शरण लेनी आवश्यक समझी। उसने सेना को आसाम भेज दिया किन्तु स्वयँ गुरूदेव जी से मिलने ढाका पहुँचा। ढाका के राज्यपाल शाइस्ता खां ने उसका शाही स्वागत किया। वह विशेष उपहार लेकर श्री गुरू तेग बहादर जी के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। गुरूदेव जी ने उसे साँत्वना दी और कहा– प्रभु नाम की अलौकिक शक्ति के सामने कोई जादूटोना टिक नहीं सकता। अपने इसी कथन की पुष्टि के लिए वे राजा रामसिँह को अपनी छत्रछाया में आसाम की ओर लेकर चल पड़े। उन्होंने कामरूप आसाम) में ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर धुबड़ी नामक स्थान पर अपना शिविर लगाया। इन्हीं दिनों श्री गुरू तेग बहादुर साहब को पटना नगर से यह शुभ सन्देश प्राप्त हुआ कि वे एक पुत्र के पिता बन गये हैं। इस समाचार से समस्त शिविर में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। गुरूदेव जी ने प्रभु के धन्यवाद हेतु प्रार्थना की और प्रसाद बाँटा। उन्होंने सन्देशवाहक को एक पत्र दिया, जिसमें माता नानकी जी से अनुरोध था कि वह बालक का नाम गोबिन्द राय रखे और उसके पालन पौषण पर विशेष ध्यान दें क्योंकि उनके वापस आने में देरी हो जायेगी। राजा रामसिँह ने धुबड़ी से लगभग 10 कोस की दूरी पर रँगमती नामक स्थान पर अपनी छावनी डाल दी। वामपँथी चक्रध्वज ने मुगल सेनाओं के आने का समाचार सुनकर गोलपाड़ा के सभी जादूगरों एवँ जादूगरनियों को इक्ट्ठा कर लिया। चक्रध्वज को श्री गुरू तेग बहादुर जी के आगमन तथा उनकी पराक्रमी शक्ति के समाचार मिल चुके थे। फिर भी उसने गोलपाड़ा क्षेत्र की जादूगरनी धोबन देव माया तथा उसके सहायक नागीना के मायावी प्रभाव की धौंस में किसी की चिन्ता नहीं की। इन जादूगरों ने ब्रह्मपुत्र नदी का बहाव बदल दिया। किन्तु गुरूदेव जी का आदेश प्राप्त होते ही राजा रामसिँह ने अपने सिपाहियों को पीछे हटा लिया, इस प्रकार उन सभी की जान बच गई। किन्तु कुछ अड़ियल मुगल सैनिक डटे रहना चाहते थे, वही सैनिक ब्रह्मपुत्र की बाढ़ में बह गये। एक-दो दिन के युद्ध के बाद कामरूप के शासक चक्रध्वज को आभास हो गया कि उसकी मायावी शक्ति अब गुरू जी के आध्यात्मिक बल के सामने टिक नहीं सकतीं तो वह अपनी माता को साथ लेकर गुरूदेव की सेवा में उपस्थित हुआ। उन्होंने राजा रामसिँह को भी वहीं बुलवा लिया और दोनों में समझौता करवा दिया। इस प्रकार श्री गुरू तेग बहादर जी की अध्यक्षता में विचार विनिमय के साथ झगड़े सुलझा लिये गये और एक नये मसौदे के अन्तर्गत नई सँधि पर दोनों पक्षों ने हस्ताक्षर कर दिये। गुरूदेव जी ने इस सँधि की पुष्टि के लिए उन दोनों की पगड़ियाँ बदलवा दी। तब से वे पगड़ी-बदल धर्म भाई बन गये।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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