19. असाध्य कुष्ठ रोगी का रोग निवारण
काशी नगर में गुरू दरबार सजा हुआ था। भाई मसूद, भाई बहल, भाई हरबख्श तथा भाई गुलाब
नामक सेवक हरिकीर्तन कर रहे थे कि तभी उनके मधुर सँगीत को सुनकर एक कुष्ठ रोगी गिरता
पड़ता सतसँग आ पहुँचा। उसने शीश झुकाकर गुरूदेव जी को प्रणाम किया और गुरूबाणी सुनने
लगा। जब शब्द की समाप्ति हुई तो वह साहस करके आगे बढ़ा और श्री गुरू तेग बहादर साहब
के समक्ष प्रार्थना करने लगा– हे गुरूदेव ! असाध्य रोग के कारण मैं परेशान हूँ। मेरे
परिजन और मित्र मेरी छाया से भी घृणा करते हैं। मैं नगर के बाहर टूटे-फूटे छप्पर का
आश्रय लेकर दिन काट रहा हूँ। अधिकाँश रातें मेरी कष्ट में व्यतीत होती हैं, मुझसे
पीड़ा सहन नहीं हो पाती। कभी किसी को दया आ जाए तो रूखी-सूखी रोटी फैंक जाता है, नहीं
तो भूखा ही रहना पड़ता है। हे दीनानाथ– इस नाथ पर भी दया करो। श्री गुरू तेग बहादर
साहब जी, उस कुष्ट रोगी की करूणामय गाथा सुनकर पसीज गये। उन्होंने कीर्तन मण्डली के
साथ मिलकर राग मारू में एक नये पद की रचना की और मधुर स्वर में गाकर उस कुष्ठ रोगी
को विशेष रूप में सुनाया:
हरि को नाम सदा सुखदाई ।।
जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनका हूगति पाई। रहाउ ।।
पंचाली कउ राज सभा मै, राम नाम सुधि आई ।।
ता को दुख हरिओ करूना मै अपनी पैज बढ़ाई ।।
जिह नर जसु क्रिपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ।।
कहु नानक मै इही भरोसै गही आन सरनाई ।।
गुरूदेव ने इस पद के माध्यम से कुष्ठ रोगी को समझाया कि ऐसी
परिस्थितियों में एक मात्र उस प्रभु का आश्रय ही होता है और वही शक्ति अपने भक्तों
का दुख निवारण करती आई है। अतः प्रभु के नाम से बढ़िया और कोई दवा है भी नहीं। कोढ़ी
को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों ‘पद’ का एक एक शब्द उसके घावों पर मरहम का काम कर रहा
था। सतसँग की समाप्ति पर गुरूदेव ने कुष्ठ रोगी को अपने पास रख लिया। कुछ दिन उसका
उपचार किया और उसे नाम की महिमा बताई। जब वह पूर्ण निरोग हो गया तो गुरूदेव जी ने
उसे कुछ धन पास से दिया और कहा कि अब तुम परिश्रम करके अपने लिए धन अर्जित करो और
अपना जीवन निर्वाह करो। स्वस्थ हुए उस व्यक्ति के नेत्रों में प्रेम की अश्रुधारा
प्रवाहित होने लगी और वह बार-बार गुरूदेव जी का धन्यवाद करने लगा।