8. भक्त सधना जी की बाणी की विरोधता
और स्पष्टीकरण
गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद
भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी
का मुँहतोड़ जबाब दिया गया है। साधसंगत जीः नीचे भक्त सधना जी के बार में बहुत ही
महत्वपूर्ण जानकारी और उनकी बाणी का एक शब्द भी दिया गया और उसके अर्थ भी दिए गए
हैं, यहाँ पर महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ इतिहासकारों ने मनघड़ंत कहानियाँ बनाकर
उन्हें मुस्लमान साबित करने की कोशिश की है, जो कि सरासर गलत है, आप अब ध्यान से
पढ़ना। भक्त सधना जी का श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में दर्ज शब्द इस तरह हैः
न्रिप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी ॥
कामारथी सुआरथी वा की पैज सवारी ॥१॥
तव गुन कहा जगत गुरा जउ करमु न नासै ॥
सिंघ सरन कत जाईऐ जउ ज्मबुकु ग्रासै ॥१॥ रहाउ ॥
एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै ॥
प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै ॥२॥
प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ ॥
बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ ॥३॥
मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा ॥
अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा ॥४॥१॥ अंग 858
अर्थः (हे जगत के गुरू प्रभु ! अगर मेरे पिछले किए हुए कर्मों
का फल नाश ना हुआ भाव यह है कि अगर में पिछले किए हुए कर्मों के सँस्कारों के
अनुसार अब भी बूरे कर्म करूँगा तो तेरी शरण में आने का मूझे क्या गुण या लाभ
प्राप्त होगा। शेर की शरण में जाने का क्या लाभ, अगर फिर भी गीदड़ खा जाए ? हे प्रभू
! तूनें उस कामी और खुरगर्ज बंदे की भी लाज रखी। भाव, तूनें उसको काम वासना के
विकार में गिरने से बचाया था जिसने एक राजा की लड़की की खातिर धर्म का भेष बनाया था।
पपीहा जल की एक बूँद के लिए दुखी होता है और कूकता है, पर यदि प्रतीक्षा में ही
प्राण निकल जाएँ तो फिर उसे समुद्र भी मिल जाए तो किसी काम नहीं आ सकता। वैसे ही हे
प्रभू ! अगर तेरे नाम अमृत की बूँद के बिना मेरी जिंद विकारों में मर गई तो फिर तेरी
मेहर का समुद्र भी मेरा क्या सवाँरेगा ? तेरी किरपा की प्रतीक्षा कर-करके मेरी आत्मा
थक गई है और विकारों में डोल रही है। इसको किस प्रकार से विकारों से रोकूँ ? हे
प्रभू ! अगर मैं विकारों के समुद्र में डूब गया और डूबने के बाद तेरी बेड़ी (नाव)
मिली तो इस बेड़ी में मैं किसको चड़ाऊँगा। हे प्रभू ! मैं कोई नहीं हूँ, कुछ नहीं
हूँ, मेरा कोई आसरा नहीं, यह मनुष्य जन्म ही मेरी लाज रखने का समय है, मैं सधना तेरा
दास हूँ, मेरी लाज रख और विकारों के समुद्र से डुबने से मुझे बचाओ।)
नोट: इस शब्द के द्वारा मन की बूरी वासनाओं से बचने के
लिए परमात्मा के आगे अरदास की गई है। इस शब्द का भाव तो सीधा और साफ है कि भक्त सधना
जी परमात्मा के आगे अरदास करते हुए कह रहे हैं कि हे प्रभू ! सँसार समुन्दर में
विकारों की अनेकों लहरें उठ रही हैं। मैं अपनी हिम्मत से इन लहरों में अपनी कमजोर
जिंद की छोटी जी नाव को डूबने से बचा नहीं सकता। मनुष्य जीवन का समय खत्म होता जा
रहा है और विकार मुड़-मुड़कर हमले कर रहे हैं। जल्दी से मूझे इनके हमलों से बचा लो।
मनघड़ंत और गल्त कहानी (1): भक्त सधना जी को कहीं से
सालग्राम का पत्थर मिल गया, उसे मास तोलने का पत्थर बना बैठे। लोग इस बात को बुरा
समझते थे पर उन्हें यह नही पता था कि सधना जी सालग्राम को देवता मानकर पूजते और उसी
के आसरे सब कार्य सम्पन्न करते थे। हिन्दु संत साधुओं में यह आम चर्चा थी कि एक
कसाई सालग्राम से मास तोलता है। एक दिन एक संत सधना जी की दुकान पर पहुँचा और विनती
कीः भाई सधना ! यह काला पत्थर मुझे दे दो, मैं इसकी पूजा करूँगा, यह सालग्राम है,
तू और पत्थर रख ले। सधना जी को महसुस हुआ कि यह संत जानबूझकर उससे पत्थर ले जाना
चाहता है। उसने बिना झिझक सालग्राम उठाकर उसे पकड़ा दिया। संत सालग्राम लेकर अपने
डेरे में चला गया। वहाँ पहुँचकर संत ने सालग्राम को स्नान करवाया, धूप धुखाई, चंदन
का टीका लगाया और फल भेंट किए। उसने फिर पूजा की और रात होने पर सो गया। जब साधू सो
रहा था तो उसे सालग्राम ने सपने में फिटकार लगाईः ऐ संत ! तूने तो बहुत बुरा किया
है। सधना के पास में बहुत प्रसन्न था, वह मेरी पूजा करता था। सच्चे दिल से वह मेरा
हो चुका था। मैं पूजा और सत्कार का भूखा नहीं बल्कि प्रेम का भूखा हूँ। वह मास तोलते
समय भी मुझे याद करता था, उसके पास मुझे छोड़ आ। यह वचन सुनकर संत की नींद खुल गई।
वह सोचता रहा और किए कर्म पर पछताता रहा। दिन होने पर वह सधना जी के पास लौटा और
उनके कहने लगाः सधना जी ! अपना सालग्राम वापिस ले लो। सधना जी ने पूछाः संत जी !
क्यों ? इस पर संत जी ने स्वप्न वाली सारी बात सुना दी। इसे सुनकर भक्त सधना जी के
मन में दुगना चाव और प्रेम उमड़ पड़ा। वह प्रभु भक्ति करने लगे।
मनघड़ंत और गल्त कहानी (2) मास बेचने का काम छोड़ना: रात
के समय एक साहूकार सधना की के पास बकरे का मास लेने आ पहुँचा। सधना जी ने कहा कि अभी
मास नहीं है, जो बकरा बनाया था, वह खत्म हो गया। साहूकार लिहाज़ वाला था, सधना उसे
खाली हाथ भी नहीं भेज सकता था। इसलिए उन्होंने जिन्दा बकरे के कपरे काटकर साहूकार
को देने चाहे। जब सधना छुरी पकड़कर बकरे के समीप गया तो बकरा हँस पड़ा। बकरा हँसकर
कहने लगाः सधना जी ! जग से बाहर करने लगे हो, एक नया लेनदेन शुरू करने लगे हो। सधना
जी के हाथ से छुरी वहीं पर गिर गई। भक्त सधना जी ने बकरे से कहाः बकरे भाई ! बता,
मामला क्या है ? लेनदेन से क्या मतलब ? बकरा बोलाः सुन ! आगे यह सिलसिला चला आ रहा
है कि कभी मैं बकरा और तूँ कसाई और कभी तूँ बकरा और मैं कसाई। इस जन्म में तूँ मेरा
अंग काटकर साहूकार को देने लगा है। यह नया लेनदेन है। कल मैं तेरे साथ ऐसा ही करूँगा।
बकरे की बातों ने भक्त सधना जी को पूर्ण ज्ञान करवा दिया। उस दिन तो उसने साहूकार
को साफ जवाब दे दिया और अगले दिन मास बेचने का धंधा ही छोड़ दिया। साधू बन गए, प्रभु
भक्ति करने लगे।
मनघड़ंत और गल्त कहानी (3): आजकल के टीकाकार इस शब्द को
इस प्रकार से जोड़ते हैः काजियों के कहने पर राजा ने भक्त सधना जी को बूर्ज में
चिनवाने चिनना शुरू कर दिया तो भक्त जी ने परमात्मा के आगे विनती की। और यह भक्त
सिंध के गाँव सिहवां में पैदा हुआ। नामदेव जी के समकालीन थे। कार्य कसाई का था। जब
भक्त जी को राजा ने दुख और तसीहे देने के लिए तैयारी की तो भक्त जी ने इस प्रकार इस
बाणी की रचना की। पर पंडित तारा सिंघ जी इस बारे में इस प्रकार लिखते हैः सधना अपने
कुल का कामकाज त्यागकर किसी हिन्दू साधू से परमेश्वर की भक्ति का उपदेश लेकर प्रेम
से भक्ति करने लगा। मुस्लमान उसको काफिर कहने लगे। काजी लोगों ने उस समय के राजा को
कहा कि इसको बूर्ज में चिनवा दीजिए। नहीं तो यह काफिर बहुत मुस्लमानों को हिन्दू मत
की रीत सिखाकर काफिर बना देगा। राजा ने काजियों के कहने से बूर्ज में चिनने का
हुक्म दिया। जब उन्हें चिना जाने लगा तब भक्त सधना जी ने यह बाणी कही। आजकल के
टीकाकार इस शब्द को इस प्रकार से जोड़ते हैः काजियों के कहने पर राजा ने भक्त सधना
जी को बूर्ज में चिनवाने चिनना शुरू कर दिया तो भक्त जी ने परमात्मा के आगे विनती
की। और यह भक्त सिंध के गाँव सिहवां में पैदा हुआ। नामदेव जी के समकालीन थे। कार्य
कसाई का था। जब भक्त जी को राजा ने दुख और तसीहे देने के लिए तैयारी की तो भक्त जी
ने इस प्रकार इस बाणी की रचना की।
मनघड़ंत और गल्त कहानी (4): भक्त बाणी के विरोधी सज्जन इस
शब्द को गुरमति के उलट समझते हुए भक्त सधना जी के बारे में ऐसे लिखते हैं। भक्त सधना
जी मुस्लमान कसाईयों में से थे। आप हैदराबाद सिंध के पास सेहवाल नगर के रहने वाले
थे कई आपको हिन्दू भी मानते थे। बताया जाता है कि भक्त जी सालग्राम के पूजारी थे,
जो उल्टी बात है कि हिन्दू होते हुए सालग्राम से मास तौलकर बेच नहीं सकते थे। अतः
सिद्ध होता है कि आप मुस्लमान ही थे क्योंकि मास बेचने वाले कसाई हिन्दू नहीं थे।
दूसरी ओर आप जी की रचना आपको हिन्दु वैष्णव साबित करती है। सधना जी की रचना साफ बता
रही है कि भक्त जी ने किसी मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए विष्णु जी की अराधना की
है।
मनघड़ंत और गल्त कहानी (5): कईयों का ख्याल है कि यह बाणी
आपने उस भय से बचने के लिए डरते हुए रची थी जब राजा की तरफ से जिन्दा दीवार में
चिनवाने का हुक्म था। चाहे शब्द रचना का कारण कुछ भी हो पर अराधना विष्णु जी की है,
जो कि गुरमति के आशे से हजारों कोस दूर है। इसलिए यह शब्द गुरमति के आशे से बहुत
दूर है।
साधसंगत जी अब सही स्पष्टीकरण भी देखेः
सदा कहानियों वाला जमाना टिका नहीं रह सकता। आखिर इन पर ऐतराज तो होने ही थे। अगर
इन कहानियों को बाणी से जोड़ देते तो कोई बात नहीं थी किन्तु यहाँ पर तो बाणी के
शब्दों के उलट ही बोल बोले जाने लगे हैं। जिस प्रकार कि पंडित तारा सिंघ जी लिखते
हैं कि भक्त सधना जी मुस्लमान थे और किसी हिन्दू साधू के प्रभाव में आने से परमात्मा
की भक्ति करने लगे। मुस्लमानों को बहुत दिक्कत हुई और दिक्कत तो होनी ही थी क्योंकि
उस समय राज मुस्लमानों का ही था। इसलिए भक्त सधना जी को बूर्ज में चिनवाने का हुक्म
राजा के द्वारा जारी करवा दिया गया। स्पष्टीकरणः यहाँ पर बड़ी हैरानी वाली बात यह है
कि मुस्लमानों के घर में जन्में और पले भक्त सधना जी ने हिन्दू बनते ही अपनी
मुस्लमानी बोली कैसे भूला दी ? और अचानक ही सँस्कृत के विद्वान कैसे बन गए। आप फरीद
जी के सलोक पढ़कर देखो, ठेठ पँजाबी में हैं, पर फिर भी इस्लामी सभ्यता वाले लफ्ज़
जगह-जगह पर प्रयोग किए हुए मिलते हैं। आप भक्त सधना जी का ऊपर दिया गया शब्द पढ़कर
देखो, कहीं पर भी एक भी लफ्ज़ फारसी का नहीं है, सिंघी बोली के भी नहीं हैं, सारे के
सारे सँस्कृत और हिन्दी के हैं। यह बात कुदरत के नियम के बिल्कुल उलट है कि कुछ ही
दिनों में भक्त सधना जी मुस्लमान से हिन्दू बनकर अपनी बोली भूला देते और नयी बोली
सीख लेते। और साथ ही यह भी कि अगर मुस्लमानी बोली बनी रहती तो क्या भक्त सधना जी की
भक्ति में कोई फर्क पड़ जाता। इसलिए सधना जी हिन्दू घर के जन्में और पले थे। और
सालग्राम से मास तोलने की कहानियाँ बनाने वालों के तो वारी वारी जाऊँ, बलिहारी जाऊँ।
ये तो मनघंड़त कहानियाँ हैं, क्योंकि बाणी में तो ऐसा कोई जिक्र नहीं है। हाँ ये
जरूर हो सकता है कि भक्त सधना जी पहले मूर्ति पूजक हों और बाद में उन्होंने मूर्ति
पूजा छोड़ दी हो। इसमें कोई गल्त बात नहीं, क्योंकि श्री गुरू नानक देव जी ने मूर्ति
पूजकों और देवी-देवता पूजकों को जीवन का सही रास्ता दिखाया था, जिससे उन्होंने
मूर्ति और देवी-देवताओं की पूजा त्यागी थी। श्री गुरू नानक देव जी की सन्तान यानि
सिक्ख कौम को कोई मूर्ति पूजक नहीं कह सकता। भक्त सधना जी की बाणी में ऐसा कोई इशारा
नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि भक्त सधना जी ने किसी बूर्ज में चिने जाने के डर
के कारण यह बाणी उच्चारण की हो। यह सारी मेहरबानी कहानी घड़ने वालों की है।
ऐसी गल्ती तो हमारे सिक्ख विद्वान भी गुरू साहिबानों का
इतिहास लिखते समय कर रहे हैः
देखो श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी का हाल बताते हुए ज्ञानी ज्ञान सिंघ जी
तवारीख गुरू खालसा में क्या लिखते हैं कि गुरूदित्ते ने श्री गुरू तेग बहादर साहिब
जी से विनती की कि हे गुरू जी ! दुष्ट औरगज़ेब ने कल हमें भी इसी प्रकार मारना है,
जिस प्रकार हमारे दो भाई मारे गए। गुरू जी ने बड़े धीरज से जबाब दिया कि हमने तो पहले
ही आपको कह दिया था कि हमारे साथ वो चले जिसे कष्ट सहने और धर्म पर कुर्बान होना
हो। अगर अभी भी अगर आपको जाना हो तो चले जाओ। सिक्खों ने कहा बेड़ियों पड़ी हुई हैं,
पहरेदार हैं, ताले लगे हुए हैं, कैसे जाएँ। गुरू जी ने कहाः यह शब्द पढ़ोः काटी बेरी
परह ते गुरि कीनी बंदि खलास।। तब उनके बन्धन खूल गए और पहरेदार सो गए और दरवाजा खुल
गया। सिक्ख चले तो गुरू जी ने यह सलोक उचाराः संग सखा सभि तजि गऐ, कोऊ न निबहिओ साथि।
कहु नानक इह बिपत मै, टेक एक रघुनाथ ।।55।। स्पष्टीकरणः साधसंगत की आपको जानकारी दे
दें कि श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी अपनी इच्छा और खुशी के साथ शहीदी देने के लिए
औरंगजेब के पास दिल्ली गए थे और यह बात सारे सँसार में सूरज की तरह रोशन है। पर उनके
सलोक नम्बर ।।55।। को इस साखी के साथ जोड़कर इस प्रकार से दर्ज किया गया है जिससे यह
जाहिर हो गया है कि गुरू जी उस कैद को विपत्ती मान रहे थे और उससे निपटने के लिए
अपने साथियों के सहारे की उम्मीद रखते थे। इन इतिहासकारों ने गुरू जी के सलोक के
साथ गल्त साखी जोड़कर इन्होंने हमारे पातशाह दीन दूनी के वाली के विरूद्ध वो ही कड़वा
दूशन खड़ा कर दिया है जो कि भक्त सधना जी के शब्द के साथ साखी लिखकर भक्त जी के
विरूद्ध लगाया है।
अब भक्त सधना जी की बात पर आ जाएँ। विरोधी सज्जन लिखता है कि इस
शब्द में (ऊपर दिया गया है) भक्त जी ने विष्णु जी की अराधना की है। यहाँ पर मुश्किल
यह बन गई है कि जगे हुओं को कौन जगाए। बाणी में भक्त जी जिसे संबोधित कर रहे हैं,
उन्हें वह जगत गुरां कह रहे हैं। किसी भी प्रकार से खींचने और घसीटने पर भी इस लफ्ज़
का अर्थ विष्णु नहीं बनता। जगत गुरां का अर्थ विष्णु करने का एक ही कारण हो सकता है
कि शब्द की पहली तुक में जिस कहानी की तरफ इशारा है वह विष्णु के बारे में है। पर
केवल इतनी सी बात से भक्त जी को विष्णु का उपासक नहीं कहा जा सकता। ध्यान रहे कि
विष्णु जी भी परमात्मा के दास हैं। उदाहरण के लिए श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी ने
राग मारू में एक शब्द के द्वारा परमात्मा के नाम सिमरन की महिमा का वर्णन इस प्रकार
किया हैः
मारू महला 9 ।।
हरि को नाम सदा सुखदाई ।।
जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनका हूगति पाई। रहाउ ।।
पंचाली कउ राज सभा मैए राम नाम सुधि आई ।।
ता को दुख हरिओ करूना मै अपनी पैज बढ़ाई ।।
जिह नर जसु क्रिपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ।।
कहु नानक मै इही भरोसै गही आन सरनाई ।।
पंचाली जो कि द्रोपदी का नाम है, और हर एक हिन्दू सज्जन जानता
है कि द्रोपदी ने सभा में नग्न होने के बचने के लिए कृष्ण जी की अराधना की थी,
किन्तु इससे यह नतीजा नहीं निकल सकता कि इस शब्द में गुरू जी कृष्ण की भक्ति के
उपदेश कर रहे हैं। इसी प्रकार से भक्त सधना जी का भी जगत गुरू विष्णु नहीं हैं।
नतीजाः
उपरोक्त दलीलों से यह निष्कर्ष निकलता हैः
1. भक्त सधना जी इस शब्द के जरिए विकारों से बचने के लिए परमात्मा के आगे अरदास कर
रहे हैं। ना कि अपनी जान बचाने के लिए कोई अरदास।
2. भक्त सधना जी मुस्लमान नहीं थे, हिन्दू घर में जन्में और पले थे।
3. बाणी का भाव गुरमति के अनुसार है।