7. भक्त धन्ना जी की बाणी की विरोधता
और स्पष्टीकरण
गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए
गए हैं। इसके बाद भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही
स्पष्टीकरण देकर विरोधी का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः साधसंगत जी यहाँ पर हम एक
मनघंड़त कहानी दे रहे हैं, जो कि किसी किताब में लिखी हुई है। आप इसे ध्यान से पढ़ना।
मनघड़ंत कहानी: भक्त धन्ना जी जहाँ पशु चराने जाते थे वहाँ
रास्ते में ठाकुरद्वार था। उस द्वार में पत्थर की मूर्तियाँ पड़ी हुई थीं। गाँव का
ब्राहम्ण प्रत्येक सुबह व शाम को उस द्वार में आकर मूर्तियों की सेवा करता। उस
पंडित को प्रतिदिन ठाकुरों की पूजा करते, स्नान करवाते तथा घंटियाँ खड़काते हुए भक्त
धन्ना जी देखते। भक्त धन्ना जी को ज्ञान होने लगा कि वह ब्राहम्ण रोज़ाना मूर्तियों
की पूजा क्यों करता है। ठाकुर जी इन्हें क्या देते हैं। यदि ठाकुर दुख दूर करने
योग्य हैं तो वह भी उनकी पूजा करे, क्योंकि उनके घर में निर्धनता दूर करने का यह
एकमात्र साधन है। एक दिन सुबह ही उठकर भक्त धन्ना जी ठाकुरद्वारे में जा पहुँचे। वहाँ
ब्राहम्ण को पूजा करते हुए पाया। जैसे ही ब्राहम्ण की पूजा समाप्त हुई, भक्त धन्ना
जी ने हाथ जोड़कर कहाः हे पंडित जी ! भला यह बताओ कि मूर्ति पूजा करने से आपको क्या
लाभ है ? पंडित जी ने कहाः धन्ना ! इनकी पूजा करने से सभी खुशियाँ प्राप्त होती
हैं। यह भगवान हैं। यदि खुश हों तो जो कुछ भी माँगें अवश्य मिलता है। धन्ना जीः
पंडित जी ! कृपा करके एक ठाकुर मुझे भी दे दीजिए। मैं भी इनकी पूजा करूँगा। जब प्रभु
मुझ पर प्रसन्न होंगे तो मैं भी कुछ माँग लूँगा। पंडित जी ने कहाः धन्ना ! तुम पर
ठाकुर प्रसन्न नहीं होंगे। भक्त धन्ना जी ने कहाः पंडित जी ! क्यों ? ब्राहम्ण ने
कहाः बस कह दिया ना। एक तो तुम जाट जाति के हो, दूसरा अनपढ़ हो। विद्याहीन पुरूष पशु
का जन्म होता है और पशु समान होता है। तीसरा मंदिर के अतिरिक्त ठाकुर जी न तो कहीं
रहते हैं और न ही प्रसन्न होते हैं। इसलिए तुम अपनी जिद छोड़ो और अपनी गायों की
देखभाल करो। इस प्रकार ब्राहम्ण ने इधर-उधर की कहकर भक्त धन्ना जी को समझाने का
बहुत यत्न किया। परन्तु भक्त धन्ना जी अपनी जिद पर अड़े रहे। पंडित को चिंता हुई कि
वह तो कमजोर सा है, कहीं धन्ना उसकी पिटाई न कर दे। पंडित ने भयभीत होकर बोलाः अच्छा
धन्ना ! इतनी जिद करते हो तो तुम्हें एक ठाकुर दे ही देता हूँ। यह कहकर ब्राहम्ण ने
भक्त धन्ना जी को मन्दिर में फालतू पड़ा सालग्राम उठाकर दे दिया और साथ में ही पूजा
करने की विधि भी बता दी।
चादर में लपेटकर भक्त धन्ना जी ठाकुर जी को अपने घर पर ले आए।
उसी समय बढ़ई के पास गए और लकड़ी की चौकी बनवाई। चौकी को धोकर उस पर ठाकुर जी को रख
दिया। सारी रात भक्त धन्ना जी नहीं सो सके। वह सारी रात विचार करते रहे कि ठाकुर को
कैसे प्रसन्न किया जाए। यदि ठाकुर प्रसन्न हो भी जाएँ तो वह माँगेगा क्या ? घर की
आवश्यकताएँ क्या हैं ? ऐसे ही विचार करते-करते रात गुजर गई। सुबह होते ही भक्त धन्ना
जी ने स्नान किया और ठाकुर जी के समक्ष बैठ गए। विद्याहीन थे, पूजा-पाठ की विधि से
अपरिचित थे। परन्तु फिर भी श्रद्धा से कह रहे थे कि ठाकुर जी आप इस जगत के
कर्ता-धर्ता हैं। मुझे सुख बक्शो, मैं आपको प्रतिदिन भोग लगाऊँगा। भक्त धन्ना जी घर
में अकेले थे। घर का कामकाज स्वयं ही करते। ठाकुर जी को स्नान करवाकर, उनके समक्ष
भक्ति भाव से बैठकर दिन उदय होने पर उठे। लस्सी का रिड़का, रोटियाँ पकाईं, मक्खन
निकाला और थाली में परोस दीं। भक्त धन्ना जी ने प्रार्थना कीः हे प्रभु ! भोग लगाओ।
मुझ जैसे निर्धन के पास केवल इतना ही है। ग्रहण कीजिए ठाकुर जी ! यह कहकर वह वहाँ
बैठै देखते रहे। (अब कोई बताए कि पत्थर भोजन कैसे ग्रहण करे ?) ब्राहम्ण तो ठाकुर
जी को भोग लगाकर सारी सामाग्री अपने घर ले जाता। भोले धन्ना जी को यह सब पता नहीं
था। वह तो पंडित के वचनों को सत्य समझ रहे थे। दो घण्टे बीत गए परन्तु भोजन वैसे ही
पड़ा रहा। भक्त धन्ना जी ने मायूस होकर कहाः हे प्रभु ! क्या आप जाट का प्रसाद नहीं
ग्रहण करोगे ? यह भोजन स्वच्छ है। मैंने स्नान करके पकाया है। यदि आपको अच्छा नहीं
लगा तो कृप्या बताइए। पंडित का भोजन तो तुरन्त ही ग्रहण कर लेते हो। प्रभु कृपा करो।
यदि आप नहीं खाएँगे तो आज मैं भी नहीं खाऊँगा। मैंने यह प्रण लिया है कि आप खाओगे
तो ही मैं खाऊँगा। मैं अपनी हठ नहीं छोड़ुँगा। अगर आपका धर्म केवल ब्राहम्ण से भोग
लगवाना है तो हमारा धर्म है हठ के बदले कुर्बान होना। प्रसाद लीजिए अन्यथा मैं यहाँ
पालथी मारकर बैठा रहूँगा। ईश्वर ने सोचा अब तो पत्थर में प्रकट होना होगा। भक्त
धन्ना जी की आत्मा निर्मल है। इसे छल की जानकारी नहीं। इसे पूरा भरोसा है कि ठाकुर
भोजन ग्रहण करते हैं। यह मेरा अन्नय भक्त है। इसका भोजन ग्रहण करना ही होगा। यदि
पत्थर के आगे इस जाट की मृत्यु हो गई तो अच्छा नहीं होगा। भक्त धन्ना जी की नजरें
ठाकुर जी की ओर टिकी रहीं। एक घंटा बीतने पर भक्त धन्ना जी ने अचानक देखा कि
परमात्मा जी उनकी रोटी मक्खन के साथ खा रहे हैं। वह खुशी के साथ उछल पड़े। मेरे
ईश्वर आए हैं। भोजन खा रहे हैं। मक्खन के साथ रोटी खा रहे हैं, मेरे भगवान। रोटी
खाकर प्रभु बोलेः भक्त धन्ना जी ! जो तुम्हारी इच्छा हो माँगो। मैं तुम पर प्रसन्न
हूँ।
भक्त धन्ना जी ने बाणी द्वारा विनती कीः
नोटः इस मनघंड़त कहानी को भक्त धन्ना जी की बाणी के साथ
नहीं जोड़ा जा सकता। यह तो मनघंड़त कहानी बनाने वालों की मेहरबानी है। बाकी रहा सवाल
पत्थर में से दर्शन होने का, तो इसका स्पष्टीकरण भी आगे दिया गया है।
गोपाल तेरा आरता ॥
जो जन तुमरी भगति करंते तिन के काज सवारता ॥१॥ रहाउ ॥
दालि सीधा मागउ घीउ ॥ हमरा खुसी करै नित जीउ ॥
पन्हीआ छादनु नीका ॥ अनाजु मगउ सत सी का ॥१॥
गऊ भैस मगउ लावेरी ॥ इक ताजनि तुरी चंगेरी ॥
घर की गीहनि चंगी ॥ जनु धंना लेवै मंगी ॥२॥४॥ अंग 695
अर्थः हे पृथ्वी के पालनहार प्रभू ! मैं तेरे दर का भिखारी हूँ,
मेरी जरूरतें पूरी कर, जो-जो मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं तूँ उनके काम पूरे करता है
।।1।।रहाउ। मैं तेरे दर से दाल, आटा और घी माँगता हूँ, जो मेरी जिंद को नित सुखी रख
सके। जूती और सुन्दर कपड़ा भी माँगता हूँ और सात सीओं का अन्न भी माँगता हूँ ।।1।।
हे गोपाल ! मैं दूध देने वाली गाय भी माँगता हूँ और एक अरबी घोड़ी भी माँगता हूँ।
मैं तेरा दास धन्ना, तेरे से घर के लिए एक अच्छी स्त्री भी माँगता हूँ।
नोटः भक्त बाणी का विरोधी, भक्त जी की बाणी को गुरमति के
विरूद्ध समझने वाला भक्त धन्ना जी के बारे में ऐसे लिखता है कि उक्त शबद में भक्त
धन्ना जी ने अपने गुरू से गाय, स्त्री, घोड़ी आदि माँगी हैं। इस प्रकार का शबद भक्त
कबीर जी ने भी लिखा है। यह शबद उसी का अनुवाद रूप है, पर यह सिद्धान्त गुरमति
सिद्धाँत की विरोधता करता है। सतिगुरू जी का सिद्धाँत यह हैः सिरि सिरि रिजकु संबाहे
ठाकुरू, काहे मन भउ करिआ।। काहे से मन चितवहि उदमु, जा आहरि हरि जीउ परिआ।। सैल पथर
महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ।। गूजरी मः 5
परमात्मा अनमाँगी रोजी देता है। परन्तु उद्यम के साधन करने
मनुष्य का परम धर्म है।
स्पष्टीकरणः भक्त बाणी का विरोधी जिस शबद का हवाला दे रहा
है, उस शबद में तो रोजी की चिन्ता करने से रोका गया है, क्योंकि जिस परमात्मा ने
भेजा है वो ही इस बात की चिन्ता करता है कि जब भेजा है तो इस बन्दे की रोजी रोटी की
भी व्यवस्था, काम धंधे की व्यवस्था करनी है। इसमें यह तो कहीं भी नहीं लिखा है कि
परमात्मा के दर से कुछ भी नहीं माँगना। यह तो ठीक है कि परमात्मा अणमँगिया अर्थात
बिना माँगे ही देता है, लेकिन उसके दर से दुनियावी वस्तूएँ माँगने की मनाही कहीं पर
भी नहीं की गई। बल्कि अनेकों ऐसे शबद मिलते हैं, जिनके द्वारा परमात्मा के दर से
दुनियावी माँगे भी माँगी गई हैं, हाँ यह हुक्म अवश्य किया गया है कि परमात्मा के
अलावा और किसी से कुछ ना माँगो। अब कुछ बाणी द्वारा साधसंगत जी आप भी देख लेः
मांगउ राम ते सभ थोक ।।
मानुख कउ जाचत स्रमु पाईऐ, प्रभ के सिमरनि मोख ।। रहाउ ।।50।।
धनासरी महला 5
मै ताणु दीबाणु तू है मेरे सुआमी, मै तुधु आगै अरदासि ।।
मै होरू थाउ नाही जिसु पहि करउ बेनंती,
मेरा दुखु सुखु तुध ही पासि ।।2।।1।।12 सूही महला 4
सिक्ख की श्रद्धा तो यह है कि दुनिया का हरेक कार विहार शुरू
करने लगो तो उसकी सफलता के लिए प्रभू के दर पर अरदास करनी है। सिक्ख विद्यार्थी यदि
इम्तिहान देने जा रहा है, तो चलने से पहले प्रभू के दर पर अरदास करे। सिक्ख अगर सफर
में चला है तो अरदास करके चले। सिक्ख अपना रिहायशी मकान बनवाने लगा है तो नींव रखने
से पहले अरदास करे। हरेक दुख-सुख के समय सिक्ख अरदास करे। जब कोई रोग आदि विपदा
प्रभू की मेहर से दूर होती है, तब भी सिक्ख शुकराने के तौर पर अरदास करे। अब आप ही
बताइऐ साधसंगत जी क्या यह गुरमति के विरूद्ध है ? बाणी में हुक्म तो यही हैः
कीता लोड़ीऐ कंमु, सु हरि पहि आखीऐ ।।
कारजु देइ सवारि, सतिगुरू सचु साखीऐ ।।20।। सिरी राग की वार
भक्त धन्ना जी का अगला शबदः
आसा बाणी भगत धंने जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने तनु मनु धनु नही धीरे ॥
लालच बिखु काम लुबध राता मनि बिसरे प्रभ हीरे ॥१॥ रहाउ ॥
बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार बिचार न जानिआ ॥
गुन ते प्रीति बढी अन भांती जनम मरन फिरि तानिआ ॥१॥
जुगति जानि नही रिदै निवासी जलत जाल जम फंध परे ॥
बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभ मन बिसरे ॥२॥
गिआन प्रवेसु गुरहि धनु दीआ धिआनु मानु मन एक मए ॥
प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ त्रिपति अघाने मुकति भए ॥३॥
जोति समाइ समानी जा कै अछली प्रभु पहिचानिआ ॥
धंनै धनु पाइआ धरणीधरु मिलि जन संत समानिआ ॥ अंग 487
अर्थः (माया के मोह में भटकते हुए कई जन्म गुजर जाते हैं। यह
शरीर नाश हो जाता है, मन भटकता रहता है और धन भी टिका नहीं रहता। लोभी जीव, जहर रूपी
पदार्थों के लालच में, काम वासना में रहता है, इसके मन से अमोलक परमात्मा विसर जाता
है।।1।।रहाउ।। हे कमले (पागल) मन ! यह जहर रूपी फल तूझे मीठे लगते हैं, तूझे सुन्दर
विचार नहीं आते, गुणों से हटकर और-और किस्म की प्रीत तेरे अन्दर बढ़ रही है और तेरे
जन्म-मरन का ताना बना जा रहा है।।1।। हे मन ! तूने जीवन की जुगत समझकर यह जुगति अपने
अन्दर पक्की नहीं की। त्रिशना में जलकर तूझे यमदूतों के जाल, यमदूतों की फाँसी पड़
गई है। हे मन ! तूँ विषय रूपी जहर के फल ही एकत्रित करके सम्भालता रहा और ऐसे
सम्भालता रहा कि तूझे परम पुरख प्रभू भूल गया।।2।। जिस मनुष्य को गुरू ने ज्ञान का
प्रवेश रूप धन दिया, उसकी मूरति प्रभू से एकमिक हो गई, उसको प्रभू का प्यार, प्रभू
की भक्ति अच्छी लगी, उसकी सुख के साथ साँझ बन गई, वो माया से अच्छी तरह से रज गया
और बन्धन मूक्त हो गया।।3।। जिस मनुष्य के अन्दर प्रभू की सर्वव्यापक जोति टिक गई,
उसने माया में न छले जाने वाले प्रभू को पहचान लिया। मैंने यानि धन्ने ने भी उस
प्रभू का नाम रूप धन ढूँढ लिया है जो सारी धरती का आसरा है, मैं धन्ना भी संत जनों
को मिलकर प्रभू में लीन हो गया हूँ।।4।।1।।
अत्यन्त महत्वपूर्ण नोटः भक्त धन्ना जी अपनी जुबान से
कहते हैं कि मूझे गुरू ने नाम धन दिया है, संतों की संगत में मूझे धरणीधर प्रभू मिला
है। पर स्वार्थी लोगों ने कहानियाँ बना दीं कि ठाकुर की पूजा, पत्थर की पूजा करने
से धन्ना जी को परमात्मा की प्राप्ति हुई। इसी भ्रम को दूर करने के लिए भक्त धन्ना
जी के शबद ही आखिरी तुक को अच्छी तरह से सिक्खों के सामने स्पष्ट करने के लिए श्री
गुरू अरजन देव साहिब जी ने अगला शबद अपनी तरफ से उच्चारण करके दर्ज किया है।
भक्त बाणी के विरोधी, भक्त धन्ना जी के आसा राग में लिखे शबद के
बारे में ऐसे लिखते हैः
ऐतराज नम्बर (1) तीन शबद राग आसा में आए हैः पहला शबद
भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने, तनु मनु धनु नही धीरे से आरम्भ होता है। जिसमें भक्त
धन्ना जी अपने गुरू परमानंद जी के आगे अरदास करते हैं। अंत में गोसांई रामानंद जी
से मेल होने पर, "धंनै धनु पाइआ धरणीधरू, मिलि जन संत समानिआ" की खुशी प्रकट करते
हैं। दूसरा शबद जिसमें "मिले प्रतखि गुसाईआ, धंना वड भागा" ।।4।।, जाटरो के लिए
प्रतख गोसांई, रामानंद स्वामी थे। पर यह शबद भक्त धन्ना जी के मुख से उच्चारण नहीं
हुआ था। इसलिए महला 5 लिखा है। भक्तों की प्रसिद्धि के लिए पहले भी उनके नामों पर
उनके श्रद्धालू रचना करते रहते थे। भक्त धन्ना जी के कई सिदाँत गुरमति विरोधी थे।
ऐतराज नम्बर (2) "गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मन
लीणा" वाले शबद का शीर्षक महला 5 से आरम्भ होता है, जिस में कई भक्तों का नाम लेकर
बताया गया है कि वो-वो नाम जपकर तर गए। पर उन भक्तों को जात-पात के नाम से याद किया
है। सारे भक्तों को गिनकर आखिर में "इह बिधि सुनि कै जाटरो, उठि भगती लागा"।।
साधसंगत जी अब स्पष्टीकरण भी देखेः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः
इस शबद में धन्ना जी साफ लफ्जों में कह रहे हैं कि मूझे गुरू ने नाम धन दिया
है। पर पाठकों की नजरों में भक्त जी के द्वारा प्रयोग किए गए गुरू पद की कद्र घटाने
के लिए भक्त बाणी के विरोधी जानबूझकर लफ्ज "गुरू रामानंद" को "गुसाईं रामानंद" वरत
रहा है। नहीं तो इस शबद में कोई भी सिदाँत गुरमति विरोधी नहीं है। पता नही, यह भक्त
बाणी के विरोधी जी को कौनसे कई सिद्धाँत गुरमति विरोधी दिखाई दे रहे हैं। अगले शबद
को उन्होंने श्री गुरू अरजन देव साहिब जी का शबद मानने से साफ इन्कार कर दिया है,
जबकि इसका शीर्षक मः 5 है। एक दलील तो बड़ी ही असमरज सी दी गई है कि भक्तों को
जात-पात के साथ याद किया गया है। तो क्या जहां कहीं पर भी गुरू साहिब जी ने किसी
भक्त की जात लिखकर जिक्र किया है, तो क्या भक्त बाणी का विरोधी उस शबद से इन्कारी
हो जाएगा। बाणी में ही देखोः
नीच जाति हरि जपतिआ, उतम पदवी पाइ।।
पूछहु बिदर दासी सुतै, किसनन उतरिआ घरि जिसु जाइ ।।1।।
रविदास चमारू उसतति करे, हरि कीरति निमख इक गाइ।।
पतित जाति उतमु भइआ, चार वरन पए पग आइ।।2।।1।।8।।
सूही महला 4, घरू 6
नामा छीबा कबीरू जोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई।।
ब्रहम के बेते सबदु पछाणिहि, हउमै जाति गवाई ।।
सुरि नर तिन की बाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई ।।3।।5।।22।।।
सिरी रागु महला 3, असटपदीआ आखिरी तुक
भक्त बाणी के विरोधी ने "मिले प्रतखि गुसाईआ" लिखकर झटपट से ही
लिख दिया है कि "जाटरो के लिए" "प्रतखि गुसाईआ" स्वामी रामानंद थे। विरोधी जी हम तो
आपसे हतना ही कहेंगे कि गुरमति के विरूद्व मनघंड़त कहानियों से बेशक मुँह मोड़ो, पर
यह दलील तो बहुत ही गल्त और खोटी है। क्या आप श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में आए
लफ्ज "गोसांई" का अर्थ गोसांई रामानंद ही करोगे। अब गुरबाणी में सिरीराग महला 5 में
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी की बाणी भी देखेः
हउ गोसाई दा पहिलवानड़ा ।।
मै गुर मिल उच दुमालड़ा ।।
सभ होई छिंझ इकठीआ, दयु बैठा वेखै आपि जीउ ।।17।।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः
भक्त वाली बाणी में शीर्षक महला 5 होते हुए भी इस शबद को श्री
गुरू अरजन देव साहिब जी का शबद मानने से इन्कार किया गया है और फिर कहते हैं कि यह
भक्त धन्ना जी का भी नहीं हैं और फिर यह भी कह दिया कि यह शबद भक्त जी के मुख से
उच्चारण ही नहीं हुआ, इसलिए मः 5 लिखा है। यह भी कह दिया कि भक्तों के नाम पर उनके
श्रद्धालू रचना करते रहते थे। यहाँ पर तो भक्त बाणी का विरोधी मनघंड़त कहानी बनाने
वालों की कहानी का ही आसरा लेकर कह रहा है कि भक्तों के साथ किसी और की भी बाणी श्री
गुरू ग्रन्थ साहिब जी में शामिल कर ली गई थी। भक्त बाणी के विरोधी का तो इसी तरफ
इशारा जा रहा है। साधसंगत जी आप अगला शबद और उसके अर्थ और बाद में स्पष्टीकरण भी
ध्यान के साथ पढ़ेः
महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लीणा ॥
आढ दाम को छीपरो होइओ लाखीणा ॥१॥ रहाउ ॥
बुनना तनना तिआगि कै प्रीति चरन कबीरा ॥
नीच कुला जोलाहरा भइओ गुनीय गहीरा ॥१॥
रविदासु ढुवंता ढोर नीति तिनि तिआगी माइआ ॥
परगटु होआ साधसंगि हरि दरसनु पाइआ ॥२॥
सैनु नाई बुतकारीआ ओहु घरि घरि सुनिआ ॥
हिरदे वसिआ पारब्रह्मु भगता महि गनिआ ॥३॥
इह बिधि सुनि कै जाटरो उठि भगती लागा ॥
मिले प्रतखि गुसाईआ धंना वडभागा ॥४॥२॥ अंग 487
अर्थः (भक्त नामदेव जी का मन सदा परमात्मा के साथ ही जुड़ा रहता
था। आधी कौड़ी का गरीब छींबा मानो लखपति बन गया, क्योंकि उसे किसी की मुहताजी न रही।।1।।
रहाउ। कपड़े बूनने और तनने की लग्न छोड़कर कबीर जी ने भाव प्रभू चरणों में लग्न लगा
ली, नीची जाति का गरीब जुलाहे थे, गुणों के समुन्दर बन गए।।1।। रविदास पहले रोज मरे
हुए पशु ढोते थे पर जब उन्होंने माया का मोह छोड़ दिया, साधसंगति में रहकर उन्हें
परमात्मा के दर्शन हो गए।।2।। सैण जी जाति का नाई था और आसपास के छोटे मोटे काम करने
वाला, उसकी शोभा घर-घर में होने लगी, उसके हिरदे में परमात्मा बस गया और वह भक्तों
में गिना जाने लग गया।।3।। इस तरह की बातें सुनकर गरीब धन्ना जट उठकर भक्ति करने लगा,
उसको परमात्मा के साक्षात दर्शन हुए और बहुत बड़ा भाग्यशाली बन गया।।4।।2।।
नोटः इस शबद से पहले शबद का शीर्षक है आसा बाणी भक्त
धन्ने की। इस शीर्षक के नीचे तीन शबद हैं, पर दूसरे शबद का एक और नया शीर्षक हैः
महला 5। इस का भाव यह है कि इन तीनों शबदों में से यह दूसरा शबद पाँचवें गुरू साहिब
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने उच्चारण किया है। इसमें उन्होंने आखिरी में लफ्ज "नानक"
प्रयोग नहीं किया। भक्तों के शबदों और सलोकों के संबंध में उच्चारण किए गए और भी ऐसे
वाक मिलते हैं, जहां पर उन्होंने लफ्ज "नानक" प्रयोग नहीं किया। देखो फरीद जी के
सलोक इसमें हम यहाँ पर सलोक नम्बर 75 दे रहे हैं जिसमें महला 5 के नाम से सलोक हैः
फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ।।
मंदा किस नो आखीऐ जां तिसु बिनु कोई नाही ।।75।। अंग 1381
इसके अलावा फरीद जी के सलोक नम्बर 82, 83, 105, 108, 109, 110
और सलोक 111 में महला 5 लिखा हुआ है। इस ख्याल बारे अब किसी शक की गूँजाइश नहीं रह
जाती कि भक्त धन्ना जी की बाणी के साथ दिया गया शबद श्री गुरू अरजन देव साहिब जी का
ही है। अब प्रश्न यह उठता है कि श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने यह शबद भक्त धन्ना
जी के शबद के साथ क्यों दर्ज किया ? शबद की आखरी तुक में लफ्ज "नानक" के स्थान पर "धन्ना"
क्यों लिखा ? तो इसका उत्तर साफ है कि फरीद जी के सलोको के साथ श्री गुरू अरजन देव
साहिब जी ने कुछ सलोक फरीद के नाम के नीचे उचारे है, उनकी पहचान के लिए सिर्फ महला
5 लिखा हैं, क्योंकि वो सलोक फरीद जी के उचारे गए सलोको के साथ संबंध रखते हैं। इसी
प्रकार श्री गुरू अरजन देव साहिब जी का उचारा गया यह शबद "गोबिंद गोबिंद गोबिंद संग
नामदेउ मन लीणा" भक्त धन्ना जी के साथ संबंध रखता है और वो संबंध क्या है, इसे जानने
के लिए शबद की आखरी तुक पढ़ोः "इह बिधि सुनि कै जाटरो उठि भगती लागा"। "क्या सुन के"
तो साधसंगत जी को इसका उत्तर इस शबद के हर बंद में मिलेगा कि भक्त धन्ना जी ने भक्त
नामदेव जी की चर्चा सुनी, भक्त कबीर जी की चर्चा सुनी, भक्त रविदास जी की चर्चा सुनी
और भक्त सैण जी की चर्चा सुनी, यह सुनकर भक्त धन्ना जी को भी चाव पैदा हुआ भक्ति
करने का। इस शबद को श्री गुरू अरजन साहिब जी ने जानबुझकर भक्त धन्ना जी के शीर्षक
के साथ दर्ज किया, क्योंकि भक्त धन्ना जी के भक्ति में लगने के कारण स्वार्थी और
मूर्तिपूजक पंडितों ने मनघंड़त कहानियाँ बनाई और उड़ाई होंगी, इन्ही कहानियों और बातों
का जोरदार रूप से खण्डन करने के लिए ही गुरू साहिब जी ने इस बाणी की रचना की कि
भक्त धन्ना जी को परमात्मा की प्राप्ति कैसे हुई और उनके भक्ति के मार्ग पर चलने का
असली कारण भक्त नामदेव जी, भक्त कबीरदास जी, भक्त रविदास जी और भक्त सैण जी की सुनी
हुई शोभा थी। साधसंगत जी अगर आपको श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी से सही रास्ता
खोजना है, तो लोगों द्वारा बनाई गई मनघंड़त कहानियों और बातों के अर्थ करने के स्थान
पर सीधा शबद का ही आसरा लिया करें। नहीं तो बहुत भारी ठोकर लग सकती है। अगर भक्त
धन्ना जी को पत्थर पूजकर परमात्मा मिला होता तो इसका भाव यह निकलता कि पत्थर पूजकर
परमात्मा को मिलने वाले की बाणी दर्ज करके श्री गुरू अरजन देव साहिब जी इस बात को
स्वीकार कर बैठे थे कि पत्थर पूजने वालों को भी परमात्मा मिल सकता है, लेकिन श्री
गुरू अरजन देव साहिब जी का अपना हुक्म यह हैः
जिसु पाहन कउ ठाकुर कहता ।।
उहु पाहनु लै उस कउ डुबता ।।2।।
गुनहगार लूण हरामी ।।
पाहन नाव न पारगरामी ।।3। सूही महला 5
साधसंगत जी अब तीसरा शबद और उसका अर्थ भी देख लीजिएः
रे चित चेतसि की न दयाल दमोदर बिबहि न जानसि कोई ॥
जे धावहि ब्रहमंड खंड कउ करता करै सु होई ॥१॥ रहाउ ॥
जननी केरे उदर उदक महि पिंडु कीआ दस दुआरा ॥
देइ अहारु अगनि महि राखै ऐसा खसमु हमारा ॥१॥
कुमी जल माहि तन तिसु बाहरि पंख खीरु तिन नाही ॥
पूरन परमानंद मनोहर समझि देखु मन माही ॥२॥
पाखणि कीटु गुपतु होइ रहता ता चो मारगु नाही ॥
कहै धंना पूरन ताहू को मत रे जीअ डरांही ॥३॥३॥ अंग 488
अर्थः (रे मेरे मन ! जो दया का घर है, यानि परमात्मा है उसे तूँ
क्यो नहीं सिमरता ? देखना तूँ किसी और की आस में नहीं रहना। अगर तूँ सारी सृष्टि के
देशों-परदेशों में भटकता फिरेगा, तो भी वो ही कुछ होगा जो कि परमात्मा चाहेगा और
करेगा।।1।। रहाउ। माँ के पेट के जल में उस प्रभू ने हमारा दस दरवाजों वाला शरीर बना
दिया, खुराक देकर माँ के पेट की आग में वो हमारी रक्षा करता है। देख हे मन ! वो
हमारा मालिक ऐसा दयालु है।।1।। कछू कम्भी यानि मादा कछूआ पानी में होती है और उसके
बच्चे बाहर रेते पर रहते है, ना बच्चों के पास पँख होते हैं कि वो उड़कर कुछ खा लें
और ना ही मादा कछुआ के स्तन होते हैं कि वो बच्चों को दूध पीला सके, पर हे जिंद !
मन में विचार करके तो देख सुन्दर परमानंद परमात्मा उनकी पालना करता है। पत्थर में
कीड़ा छिपा रहता है, पत्थर में से बाहर जाने के लिए उसका कोई राह नहीं होता, पर उसको
पालने वाला भी पूरन परमात्मा ही है। धन्ना जी कहते हैं, हे जीव ! इसलिए तू भी ना डर।।3।।3
नोटः भक्त धन्ना जी की बाणी में दिए गए शबद गुरमति के
विरूद्ध नहीं हैं, बल्कि यह गुरमति के अनुकुल हैं और गुरू साहिबानों के आशे अनुसार
ही हैं।